आज प्लास्टिक, मिट्टी, पानी, और वायु का प्रदूषक बनता जा रहा है। जमीन पर पड़े हुए प्लास्टिक से धूप के कारण अपर्दन से टूटकर सूक्ष्म कण मिट्टी में मिल जाते हैं और मिट्टी के उपजाऊपन को नष्ट करने का काम करते हैं। पानी में मिल कर मछलियों के शरीर में पहुंच कर खाद्य शृंखला का भाग बन कर मानव स्वास्थ्य के लिए हानिकारक बन जाते हैं। जलाए जाने पर वायु में अनेक विषैली गैसें वायु मंडल में छोड़ते हैं जिससे वैश्विक तापमान वृद्धि के साथ-साथ मानव स्वास्थ्य के लिए गंभीर खतरे पैदा हो रहे हैं।
दिनों-दिन बढ़ती जा रही चुनौती
प्लास्टिक दैनिक जीवन का ऐसा भाग बन गया है कि इससे बचना बड़ी चुनौती बनता जा रहा है। प्लास्टिक का प्रयोग कम करना, पुनर्चक्रीकरण, और जो बच जाए उसको उत्तम धुआं रहित प्रज्वलन तकनीक से ताप विद्युत बनाने में प्रयोग किया जा सकता है। हालांकि इससे भी थोड़ा गैस उत्सर्जन तो होता है किन्तु जिस तरह शहरी कचरा डंपिंग स्थलों में लगातार लगने वाली आग और गांव में खुले में जलाया जा रहा प्लास्टिक धुआं फैलता जा रहा है उससे तो यह हजार गुणा बेहतर है। स्वीडन ने तो यूरोप के अनेक देशों से सूखा कचरा आयात करके उससे बिजली बनाने का व्यवसाय ही बना लिया है। उसके पास जो तकनीक है, उसमें केवल दशमलव दो (।2) प्रतिशत ही गैस उत्सर्जन होता है। प्लास्टिक के विकल्प के रूप में पैकिंग सामग्री तैयार करना नवाचार की दूसरी चुनौती है। गांव में भी अब तो प्लास्टिक कचरे के अंबार लगते जा रहे हैं।
आधुनिक दैनिक प्रयोग की तमाम वस्तुएं प्लास्टिक में ही पैक हो कर आ रही हैं। प्लास्टिक के पुन: चक्रीकरण के लिए यह जरूरी है कि प्लास्टिक और अन्य सूखा कचरा अलग-अलग एकत्र किया जाए। और कबाड़ी को दिया जाए। जो बच जाए उसे निबटाने के दुसरे सुरक्षित तकनीकी उपायों की सरकारें व्यवस्था करें। एक विचार यह भी जोर पकड़ रहा है कि जो पैदा करे वही कचरे के प्रबंधन का जिम्मेदार ठहराया जाए ताकि ये पैकिंग करके सामान बेचने वाली कंपनियां पैकिंग सामग्री एकत्रित करवा कर वापस लें, और रीसाइक्लिंग की व्यवस्था करें।
किन्तु केवल प्लास्टिक ही जलवायु परिवर्तन का कारक नहीं है। रासायनिक कृषि के कारण भी भूमि की जैविक पदार्थ धारण करने की क्षमता समाप्त हो जाति है जिससे कार्बन पदार्थ का भूमि में संचय नहीं होता दूसरा भूमि की उपजाऊ शक्ति भी कम हो जाति है। जैविक कृषि को प्रोत्साहित करके और वैज्ञानिक आधार पर विकसित करके इस समस्या से निपटा जा सकता है। भारत में इस दिशा में कुछ काम होना शुरू भी हुआ है किन्तु इसे अभी तक मुख्यधारा बनाने में सफलता नहीं मिली है। इसके लिए अधिक वैज्ञानिक शोध की जरूरत है ताकि रासायनिक विधि के बराबर ही उत्पादन करके दिखाया जाए और अन्न सुरक्षा की चुनौती पर कोई खतरा आने की चिंता न रहे।
समाज में बढ़ रहा असंतोष
जलवायु परिवर्तन में मुख्य भूमिका ऊर्जा उत्पादन क्षेत्र की है। हमारे देश में कुल विद्युत उत्पादन 428 गीगा वाट है। जिसमें से 71 प्रतिशत कोयले और जीवाश्म ईंधन से हो रहा है। स्वच्छ ऊर्जा उत्पादन 168.96 गीगा वाट है। जिसमें से 42 गीगा वाट जल विद्युत का उत्पादन है। किन्तु जल विद्युत भी जब बड़े बांधों के माध्यम से बनाई जाती है तो जलाशयों में बाढ़ से संचित जैव पदार्थ आक्सीजन रहित सड़न द्वारा मीथेन गैस का उत्सर्जन करते हैं। मीथेन कार्बन डाई आक्साइड से छह गुणा ज्यादा वैश्विक तापमान वृद्धि का कारक है। इसलिए एक सीमा से ज्यादा जल विद्युत का प्रसार भी ठीक नहीं। सौर ऊर्जा एक बेहतर विकल्प के रूप में उभर रही है।
भारत वर्ष में पिछले कुछ सालों में सौर ऊर्जा उत्पादन में अच्छा काम हुआ है। भारत वर्ष में 2030 तक 500 गीगा वाट स्वच्छ उर्जा उत्पादन का लक्ष्य रखा गया है। आशा है इसे हम प्राप्त कर सकेंगे। किन्तु बड़े ऊर्जा पार्क बना कर स्थानीय संसाधनों पर कुछ जगहों पर ज्यादा दबाव पड़ जाता है जिससे कई समुदायों की रोजी-रोटी के संसाधन छिन जाते हैं जिसके विरुद्ध कई आवाजें उठती रहती हैं, और संघर्ष खड़े हो जाते हैं। इन जायज संघर्षों को अकसर शासन और प्रशासन स्थानीय समुदायों की कठिनाई को समझ कर समाधान करने के बजाए उनसे टकराव का रास्ता चुनती हैं और उन्हें देशविरोधी, विकास विरोधी ठहराने के अवास्तविक और अनावश्यक प्रयास करते हैं। जिससे बेगुनाह लोग अत्याचार और शोषण का शिकार हो जाते हैं और समाज में असंतोष बढ़ता है।
हमें याद रखना चाहिए कि विकास का मतलब समावेशी विकास होता है। राष्ट्रीय और बहुराष्ट्रीय कंपनियों तक ही विकास का मुख्य लाभ पहुंचने से आय का न्यायपूर्ण बंटवारा नहीं हो सकता। अत: उत्पादन का यथा संभव विकेन्द्रित तरीका ही अपनाया जाना चाहिए। उदाहरण के लिए भारत में 6 लाख के लगभग गांव हैं। यदि हर गांव में एक मैगा वाट सौर उर्जा उत्पादन घर की छतों पर और बेकार जगहों पर किया जाए तो बिना किसी एक जगह संसाधनों पर बड़ा दबाव बनाए 6 लाख मेगा वाट बिजली का उत्पादन हो सकता है।उत्पादन के इस तरीके से लाखों लोगों को रोजगार और स्व रोजगार के अवसर पैदा हो सकते हैं।
अत: जरूरत टकराव की नहीं बल्कि विचार आदान-प्रदान की है। कौन विचार कितना करणीय है यह अपने देश की स्थितियों के अनुरूप तकनीकों के नवाचारों को प्रोत्साहित करके देखा जा सकता है। जलवायु परिवर्तन के कारण जिस तरह की अतिवृष्टि, ओलावृष्टि, ग्लेशियर पिघलने की, रेगिस्तानों में अभूतपूर्व बारिश की, समुद्री जल स्तर बढने की जो घटनाएं हो रही हैं ये दुनिया भर के लिए चेतावनी हैं। दुबई, इंडोनेशिया, और अफ़्रीकी देशों की हाल की बेमौसमी बाढ़ें, यूरोप और अमेरिकी देशों के बेमौसमी बर्फीले तूफान जलवायु परिवर्तन की चुनौतियां हैं। गरीब देशों और कृषि प्रधान देशों पर इसका सबसे ज्यादा हानिकारक प्रभाव पड़ रहा है। गरीब देशों में भी सबसे गरीब लोग ही ज्यादा प्रभावित हों रहे हैं। इस तरह जलवायु परिवर्तन सामाजिक न्याय के लिए भी वैश्विक स्तर पर बड़ी चुनौती बन कर खड़ा है, जिससे निपटने में देर आत्मघाती ही सिद्ध होगी।
पर्यावरण के प्रति लोगों का जागरूक होना जरूरी
पृथ्वी दिवस इस खतरे के प्रति सजग करने का अवसर होता है जिसे गंभीरता से लिया जाना चाहिए। यही भारतीय सभ्यता का संदेश भी है जिसने ''माता भूमि, पुत्रोह्म पृथिव्या:'' कह कर मानव को भूमि का पुत्र घोषित किया है। हम मां के वात्सल्य पूर्ण आंचल की रक्षा अपने ही हित के लिए कर सकें अपनी गलतियों को सुधार कर। इस संदर्भ में अतीत के पन्नों पर झांकना जरूरी है। 1962 में राचेल कार्सन ने ''साइलेंट स्प्रिंग'' नामक पुस्तक लिखी जिसमें पर्यावरण को कीटनाशकों से हो रहे नुकसान की ओर ध्यान आकर्षित किया गया। कीटनाशकों की कुछ मात्रा अनाजों में आ जाती है और खाद्य शृंखला में दाखिल हो जाती है, जिसका दुष्प्रभाव मानवजाति के अतिरिक्त अन्य पशु- पक्षियों पर भी पड़ जाता है जिसके कारण कई पक्षी प्रजातियां लुप्त हो रही थीं, जिनके बिना वसंत का सौन्दर्य ही समाप्त हो रहा है।
पुस्तक इतनी प्रसिद्ध हुई की बेस्ट सेलर बन गई। इससे अमेरिका में पर्यावरण के प्रति जागरुकता बढ़ी। 1969 में जब दक्षिणी कैलिफोर्निया के तट पर खनिज तेल दुर्घटना हुई तो सेनेटर गेलोर्ड नेल्सन ने उस क्षेत्र का दौरा कर समुद्री जीवों की तबाही देखी जो समुद्र के पानी पर तेल के फैलने के कारण हुई थी। नेल्सन ने इस मुद्दे पर जागरुकता फैलाने के लिए ''टीच इन'' कार्यक्रम कॉलेजों में आयोजित किए। डेनिस हेस और अन्य आन्दोलनकारियों के साथ मिल कर इस जागरुकता अभियान को राष्ट्रीय स्तर पर फैलाने का निश्चय किया गया। इसकी शुरुआत 22 अप्रैल 1970 को राष्ट्रव्यापी स्तर पर हुई और इस दिन को पृथ्वी दिवस का नाम दिया गया। यानी पृथ्वी के स्वास्थ्य की चिंता करने का दिन। इस कार्यक्रम को भारी जन समर्थन मिला। इससे बने दबाव के चलते ही अमेरिका में ''शुद्ध वायु कानून'' और ''शुद्ध जल कानून'' पारित हुए। इसे वर्तमान पर्यावरण आंदोलनों की शुरुआत भी माना जाता है। धीरे-धीरे पृथ्वी दिवस को वैश्विक स्तर पर मनाया जाने लगा। इस समय तक 192 देशों में पृथ्वी दिवस मनाया जाता है ताकि पृथ्वी के पर्यावरण को हो रही हानियों के प्रति जागरुकता फैले और हमारे रहन-सहन, उत्पादन पद्धतियां और कायदे कानून पर्यावरण मित्र विकास की दिशा में मुड़ें।
सन 2000 से पृथ्वी दिवस को जलवायु परिवर्तन की दिशा में लक्षित किया गया है। जलवायु परिवर्तन वर्तमान में पर्यावरण की मुख्य समस्या बनती जा रही है। इसकी ओर ध्यान देना जरूरी हो गया है। इस वर्ष पृथ्वी दिवस का विषय वस्तु ''पृथ्वी ग्रह बनाम प्लास्टिक” रही। अब इस दिशा में सालभर कितना काम होता है, यह देखना महत्वपूर्ण होगा।
कुल भूषण उपमन्यु
(लेखक, जल-जंगल-जमीन के प्रखर चिंतक हैं।)