फीचर्ड संपादकीय

सरकार-किसानों के समन्वय से खत्म होगा आंदोलन

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कल आशा बंधी थी कि किसान-आंदोलन का कोई सर्वसमावेशी हल निकल आएगा। कृषि मंत्री नरेंद्र तोमर ने किसानों की बात रख ली और तुरंत उन्हें बात करने के लिए बुला लिया। यह भी अच्छा हुआ कि सरकार ने सारे किसानों के बुराड़ी मैदान में इकट्ठे होने के आग्रह को छोड़ दिया लेकिन किसानों ने दिल्ली पहुंचने के लोकप्रिय परंपरागत रास्तों पर धरने दे दिए हैं। दिल्ली की जनता को फल और सब्जियां मिलना मुहाल हो रहा है और सैकड़ों ट्रक सीमा के नाकों पर खड़े हुए हैं। इससे किसानों को भी नुकसान हो रहा है। व्यापारी भी परेशान हैं।

यह तब है जबकि दिल्ली की जनता ने किसानों के लिए अपनी तिजोरियां खोल दी हैं। यदि ये धरने और प्रदर्शन लंबे खिंच गए तो किसानों के प्रति आम जनता में आक्रोश पैदा हो सकता है, खासकर पंजाब और हरियाणा के किसानों के लिए, जो अन्य भारतीय किसानों के मुकाबले काफी ठीक-ठाक हैं। कृषि मंत्री तोमर का यह प्रस्ताव व्यावहारिक है कि पांच किसान नेताओं की कमेटी बनाई जाए, जो सरकार के साथ बैठकर इस समस्या का हल निकाले लेकिन वार्ता में शामिल तीन-चार दर्जन किसान नेता इस बात से सहमत नहीं हैं। जाहिर है कि इस आंदोलन के कोई सर्वमान्य नेता नहीं हैं। पता नहीं, अब आगे बात कैसे चलेगी? सरकार तो 100 नेताओं के से एक साथ बात कर सकती है लेकिन वहां अपनी-अपनी ढपली और अपने-अपने राग से सब परेशान हो जाएंगे।

जहां तक तीनों कृषि-कानूनों को वापस लेने की बात है, यह शुद्ध अतिवाद है, दादागीरी है। सिर्फ 6 प्रतिशत किसानों का प्रतिनिधित्व करनेवाले इन नव-नेताओं के आगे सरकार आत्म-समर्पण क्यों करे? यदि वे अहिंसक प्रदर्शन करते हैं तो जरूर करें लेकिन यदि वे हिंसा पर उतारू हो गए तो सरकार को मजबूरन सख्त कार्रवाई करनी होगी।

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इसका अर्थ यह नहीं कि सरकार अपनी अकड़ पर अड़ी रहे। जो भी सुझाव आते हैं, उनपर वह अच्छी तरह से सोच-विचार करे। न्यूनतम समर्थन मूल्य को कानूनी रूप दे देने से मूल समस्या हल हो सकती है लेकिन उससे कम या ज्यादा दर पर माल बेचने की छूट जरूरी होनी चाहिए। उसपर सजा या जुर्माने का प्रावधान अनुचित होगा। मंडियों की संख्या बढ़ाना और उनकी व्यवस्था को अधिक किसान-हितकारी बनाना भी उतना ही जरूरी है।

डॉ. वेदप्रताप वैदिक