सच हमेशा ही कड़वा होता है, बहुत कड़वा। द केरल स्टोरी --- जिसे निर्माता विपुल शाह और निर्देशक सुदीप्तो सेन ने "सत्य घटनाओं पर आधारित" कह कर सिनेमा के परदे पर उतरा है -- मानवीय संवेदना को झंकझोर कर रख देने वाली फिल्म है।
जो भी लोग सालों से अख़बार/मैगज़ीन पढ़ते रहे हैं उन्होनें आईसिस (आई.एस.आई.एस.) की बर्बरता के क़िस्से पढ़े हैं, मीडिया में देखे भी हैं। उन्हें जानकारी है की 'सेक्स स्लेव' क्या होती हैं, किस तरह उन्हें अमानवीय रूप से दर्जनों लोग एक के बाद एक रेप करते हैं। तालिबानी सोच के तहत किस तरह लोगों को सरेआम सज़ाएं दी जाती रही हैं, कभी हाथ-पैर काट कर तो कभी गोली मारकर। इन ख़बरों की सत्यता पर कभी प्रश्नचिह्न नहीं लगाया गया। तब फिल्म 'द केरल स्टोरी' में यही दृश्य एक धर्मान्तरित भारतीय लड़की के हवाले से दिखाए जाने पर राजनीतिक तबकों में खलबली क्यों मची है? यह तब, जब एक भुक्तभोगी अभागी आज भी किसी सेल में पड़ी देश वापसी के इंतज़ार में है।
रोंगटे खड़े कर देने वाली 'द केरल स्टोरी' की कहानी चार लड़कियों पर केंद्रित है जो एक नर्सिंग कॉलेज में रूममेट हैं। इनमें शालिनी उन्नीकृष्णन, गीतांजलि और निमा मैथ्यू को आसिफा नाम की छात्रा ब्रैनवॉश करना शुरू करती है। आसिफ़ा आईसिस की एजेंट है, जिसका काम है लड़कियों को धर्मान्तरित कर उन्हें सीरिया भिजवाना। अपनी तीनों रूममेट के लिए वो जाल बिछाती है लेकिन निमा उसकी कट्टरवादी सोच को नकार देती है। शालिनी आसिफा से सबसे ज़्यादा प्रभावित होती है। शालिनी को आसिफ़ा का कजिन प्यार के जाल में फंसाकर गर्भवती कर फरार हो जाता है। फिर शालिनी उर्फ़ फातिमा बा का 'निकाह' किसी अन्य के साथ पढ़वा कर उसे सीरिया भेज दिया जाता है।
गीतांजलि भी ड्रग्स की लत के चलते अपनी कथित प्रेमी के कहने पर अपने नग्न फोटो और वीडियो उसे भेजती है। जब वो धमकियों के बावजूद धर्म परिवर्तन कर सीरिया जाने के लिए राज़ी नहीं होती तब सोशल मीडिया पर ये वीडियो और फोटो वायरल कर के उसे आत्महत्या करने पर विवश किया जाता है। उसके माता-पिता का घर जला दिया जाता है। ईसाई लड़की निमा आसिफा की बातों से प्रभावित नहीं होती बल्कि उसका विरोध भी करती है।
कमज़ोर दिल वालों को इस फिल्म में दिखाए बर्बरता और बलात्कार के दृश्य डरावने लग सकते हैं। अमानवीयता की हद को पार कर शरिया के नाम पर महिलाओं को जिस तरह सीरिया-अफ़ग़ान बॉर्डर पर बने शिविरों में प्रताड़ित किया जाता है, यह दृश्य दिल दहला देने वाला है।
फिल्म का फोकस इस्लामिक संगठन के जाल में फंसकर धर्मान्तरित हुई युवती की कहानी है, जिसे किसी भी तरह किसी धर्म विशेष से जोड़कर नहीं बल्कि कट्टरपंथी जिहादी संगठन की कारगुज़ारी के रूप में ही देखा जाना चाहिए। आईसिस कैम्पों में किस तरह महिलों का शोषण होता है, यह अचरज में तो नहीं डालता लेकिन मन को झकझोर ज़रूर देता है।
अगर यह केवल दो लड़कियों की कहानी भी है तब भी उनके अंजाम से सबक़ लेकर बाकी सबको चेताया जाना आवश्यक है। भविष्य में कोई मासूम भारतीय बेटी किसी तरह के "ट्रैप" में फंसकर अपना जीवन बर्बाद न करे। फिल्म को निष्पक्ष रहकर देखने पर आप इसे इस्लाम विरोधी नहीं कह पाएंगे। कट्टरवादी जिहादी संगठन मानवता के दुश्मन हैं और अपने मक़सद को पूरा करने के लिए किसी भी हद तक जा सकते हैं -- इसी परिप्रेक्ष्य में फिल्म को देखा जाना चाहिए।
आरिफ़ा हिन्दू देवी-देवताओं के विषय में कुछ अनर्गल बातें कहती है जो केवल लड़कियों को बरगलाने के लिए कही गयीं। उधर, शालिनी उर्फ़ फातिमा सीरिया में पड़ोसन से शरिया कानूनों से सम्बंधित जिज्ञासा ज़ाहिर करती है। ऐसा वार्तालाप केवल कहानी को आगे बढ़ने के लिए प्रयोग किया गया, किसी धर्म की निंदा करने के उद्देश्य से नहीं।
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निर्माता और निर्देशक के अनुसार फिल्म के कथानक की सत्यता प्रमाणित करने के बहुत से प्रमाण उनके पास है। गहन खोजबीन के बाद उन्होंने यह फिल्म बनायीं। शूटिंग के समय उन्हें कई तरह की प्रताड़ना या आक्रोश भी झेलना पड़ा। निर्माता विपुल शाह ने एक चैनल को बताया कि पीड़ित लड़कियों के परिवारों से बातचीत करने के बात बहुत से संवाद जस के तस लिये गए हैं।
कई कारणों से विवादों में घिरी 'द केरल स्टोरी' सिनेमाघरों में दर्शकों को खींच लाने में सफल हुई है। फिल्म का विरोध भी हो रहा है और तुष्टिकरण के चलते कुछ राज्यों में इसे प्रतिबंधित भी किया गया है। सभी विवादों को दरकिनार करते हुए मेरा एक प्रश्न है -- 'अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता' विपुल शाह और सुदीप्तो सेन को भी तो है कि नहीं? या यह अधिकार केवल 'पीके' बनाने वाले आमिर ख़ान जैसों को ही प्राप्त है?
वसुधा ‘कनुप्रिया’
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