फीचर्ड संपादकीय

स्वामी दयानंद सरस्वती: राष्ट्रीय पुनर्जागरण के महायोद्धा

Swami Dayanand Saraswati
21वीं सदी का वर्तमान अमृतकाल निश्चित रूप से भारतभूमि के हर सनातनधर्मी देशवासी के लिए अत्यंत आह्लादकारी है। 500 सालों की सुदीर्घ प्रतीक्षा, अनवरत संघर्ष और असंख्य बलिदानों के उपरांत भारत के संस्कृति पुरुष की अयोध्या के राष्ट्र मंदिर में पुनप्रतिष्ठा इस आह्लाद का चरम बिंदु है। समूचा विश्व समाज आज इस तथ्य से हतप्रभ व रोमांचित है कि किस तरह रोम व मक्का जाने वाले श्रद्धालुओं के आंकड़े अयोध्या में आयोजित प्रभु राम के अद्भुत प्राण प्रतिष्ठा उत्सव में उमड़े सनातन आस्था के विशाल जन सैलाब के आगे बौने पड़ गए।

बचपन का नाम था मूलशंकर

काबिलेगौर हो कि जिस तरह से आज न केवल पुण्यभूमि भारत की समूची संत शक्ति और राष्ट्र की सौ करोड़ जागृत सनातनधर्मी जनता सनातन की पुनस्र्थापना को पूर्ण रूपेण प्रतिबद्ध दिखाई दे रही है, ठीक उसी तरह 19वीं सदी के पूर्वार्ध में जन्मे एक महामनीषी ने दासता के समय भारत की सनातन संस्कृति के जनजागरण का तुमुल शंखनाद किया था। भारतभूमि के ये महामनीषी थे आर्य समाज के संस्थापक स्वामी दयानंद सरस्वती (Swami Dayanand Saraswati )। सन् 1824 ईसवी को फाल्गुन मास के कृष्ण पक्ष की दशमी तिथि (इस वर्ष 05 मार्च 2024) को काठियावाड़ (गुजरात) के राजकोट जिले के टंकारा गांव के एक समृद्ध शिवभक्त ब्राह्मण परिवार में जन्मे इस महामानव के बचपन का नाम मूलशंकर था। धर्म दर्शन में विशेष रुचि होने के कारण उन्होंने बचपन से ही हिन्दू धर्मग्रंथों का अध्ययन शुरू कर दिया था किन्तु उसी दौरान जीवन में घटी कुछ अप्रत्याशित घटनाओं ने उन्हें सत्य की खोज के लिए प्रेरित किया और 1846 में 22 साल की युवावस्था में घर छोड़कर सद्गुरु की खोज में निकल पड़े। काफी भटकने के बाद वेदों के प्रकांड विद्वान प्रज्ञाचक्षु स्वामी विरजानंद पर आकर उनकी तलाश पूरी हुई। स्वामी विराजानंद ने उन्हें पाणिनी व्याकरण, पातंजलि-योगसूत्र तथा वेद-वेदांग का अध्ययन कराया। तकरीबन डेढ़ दशक के वेदों के गहन अध्ययन-अनुशीलन के बाद गुरु ने उन्हें संन्यास की दीक्षा देकर मूलशंकर से स्वामी दयानंद सरस्वती बना दिया और गुरु दक्षिणा में उनसे वैदिक धर्म का पुनरुद्धार की मांग की। गुरुआज्ञा शिरोधार्य कर स्वामी जी भारत की सनातन वैदिक संस्कृति की पुनः स्थापना के पुनीत लक्ष्य में जुट गए।

आर्य समाज संस्था की स्थापना

19वीं सदी के दासताकाल में विदेशी संस्कृति के अन्धानुकरण के चलते भारतीय संस्कृति संक्रमण के दौर से गुजर रही थी। 1863 से 1875 तक 12 वर्ष तक समूचे देश में सुदूर व सुदीर्घ पद यात्राएं कर बेहद बारीकी से देश की नब्ज टटोली और तदयुग की भयाक्रांत, आडम्बरों में जकड़ी और धर्म विमुख हिन्दू जनता को भारत की आध्यात्मिक शक्ति से जोड़ने के लिए सन् 1875 ईसवी में ‘’आर्य समाज’’ संस्था की स्थापना की। आर्य समाज के नियम और सिद्धांत प्राणिमात्र के कल्याण के लिए हैं। आर्य समाज की स्थापना का मुख्य उद्देश्य मनुष्य की शारीरिक, आत्मिक और सामाजिक उन्नति के माध्यम से गौरवशाली भारत का पुनर्निर्माण था। स्वामी जी के समय में भारत पराधीनता में जकड़ा हुआ था। भारत की पराधीनता, निर्धनता, विधवा व अनाथों की दुर्दशा, नारी अशिक्षा, अछूतों की दीन दशा, धर्म के नाम पर छल-कपट, व्यभिचार व अज्ञानता स्वामी जी के अंतस को बहुत पीड़ा देती थी। इस पीड़ा के निवारण के लिए उन्होंने स्त्री शिक्षा, अछूतोद्धार, परतंत्रता निवारण, विधवा रक्षण, अनाथ पालन, सबके लिए शिक्षा की अनिवार्यता, जन्मगत जाति के स्थान पर गुण-कर्म के अनुसार वर्ण व्यवस्था, समस्त मानवों के लिए वेदाध्ययन, समानता आधारित गुरुकुल प्रणाली का प्रचलन, सदाचार तथा ब्रह्मचर्य पर बल, हिंदी को राष्ट्रभाषा का स्थान दिलाने, देश में कला कौशल तथा विज्ञान पर बल, कृषक को राजाओं का राजा कहकर हरित क्रांति का संदेश, गौ का महत्व सिद्ध कर पशुमात्र की रक्षा पर बल, नशामुक्ति का उपदेश, परमेश्वर की उपासना एवं पंच-महायज्ञों का विधान, स्वतंत्रता के लिए संघर्ष की प्रेरणा, मिथ्या मत-मतांतरों का खंडन कर स्वर्णिम वैदिक काल के पुनरागमन के लिए राष्ट्रव्यापी आंदोलन चलाए थे। 1867 ईसवी में हरिद्वार में कुम्भ के दौरान स्वामी दयानंद सरस्वती जी ने ‘’पाखंड खंडनी पताका’’ फहराकर अधर्म, अनाचार और धार्मिक शोषण के खिलाफ धर्मयुद्ध की घोषणा की थी। उनके तार्किक सुधारवादी कार्यक्रमों के द्वारा आम भारतीय जनमानस के अंतस में व्यापक जनजागृति फैल गई थी।

आधुनिक युग को दिशा देने में समर्थ है स्वामी जी का वेद ज्ञान

भारतीय पुनर्जागरण के प्रणेता स्वामी दयानंद सरस्वती योगी तो थे ही, साथ ही वेदों के प्रकांड विद्वान भी थे। स्वामी दयानन्द सरस्वती ने अपने जीवनकाल में सत्यार्थ प्रकाश, यजुर्वेद भाष्य, पंचमहायज्ञ विधि, ऋग्वेद भाष्य, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, वेदांग प्रकाश, आर्याभिविनय, संस्कार विधि, गो-करुणानिधि, संस्कृत वाक्यप्रबोध, भ्रान्ति निवारण, अष्टाध्यायी भाष्य, और व्यवहारभानु जैसी कई धार्मिक व सामाजिक पुस्तकें लिखीं थीं। उनकी प्रारम्भिक पुस्तकें संस्कृत में थीं, किंतु समय के साथ उन्होंने कई पुस्तकों को आर्यभाषा (हिंदी) में भी लिखा, क्योंकि हिंदी की पहुंच संस्कृत से अधिक थी। कहा जाता है कि हिन्दी को ’आर्यभाषा’ का नाम स्वामी दयानन्द ने ही दिया था। Swami-Dayanand Saraswati-great warrior बताते चलें कि आर्य समाज के प्रमुख ग्रन्थ ‘सत्यार्थ प्रकाश’ की रचना महर्षि दयानन्द सरस्वती ने 1875 ईसवी में हिन्दी में ही की थी। उन्होंने वेदों के सरल, सहज, बोधगम्य व तर्कपूर्ण भाष्यों के द्वारा उनके मूल अर्थ को जन सामान्य के सामने स्पष्ट किया था। आर्य समाज के जाने-माने विद्वान डॉ. अजीत आर्य के अनुसार अपने द्वारा किए गए वेदों के भाष्य में स्वामी जी ने यह स्पष्ट किया है कि वेदों में दुनिया की सारी विद्याओं का सत्य समाहित है। उनके वेद भाष्यों में सृष्टि के विज्ञान के साथ समाज विज्ञान, भौतिक विज्ञान तथा आत्मविज्ञान के उच्च तत्वों को सहज ही खोजा जा सकता है। यही नहीं, स्वामी दयानन्द सरस्वती के वेद भाष्य में दिए गए दिशा-निर्देश आज के वैज्ञानिक युग को भी नई दिशा देने में पूर्ण समर्थ हैं। डॉ. अजीत आर्य के अनुसार स्वामी जी कर्म आधारित वर्ण व्यवस्था के पुरजोर समर्थक थे। वे कहते थे जो ज्ञान की पूर्ति करे, वह ब्राह्मण है। जो सभी की सुरक्षा करता है, वह क्षत्रिय है। जो निजी सामान व आपूर्ति की व्यवस्था करे, वह वैश्य है। जो साफ-सफाई का ध्यान रखे, वह अनुसूचित समाज है। इस प्रकार उन्होंने सभी वर्णों को कर्म के आधार पर सम्मान दिया। स्वामी दयानंद सरस्वती जी ने धर्म में भी तर्क को महत्व प्रदान किया। उन्होंने तर्क के नियम पर बल दिया और बताया कि श्रद्धा के आधार पर कुछ भी स्वीकार न करो, बल्कि जांचो, परखो और निष्कर्ष पर पहुंचो। वैदिक धर्म के इसी तत्वदर्शन को हर भारतवासी तक पहुंचाने के स्वामी जी आजीवन संघर्ष करते रहे। इसके लिए तलवार के वार, ईंट-पत्थर, निंदा, अपमान, मिथ्यारोप, प्राण हरण के प्रयास कुछ भी उन्हें उनके लक्ष्य से पल भर भी विचलित न कर सका।

शुद्धि आंदोलन (घर वापसी) के प्रणेता

स्वामी जी ने धर्म परिवर्तन कर चुके लोगों को पुनः हिन्दू बनने की प्रेरणा देकर शुद्धि सभा का गठन किया था। इससे बड़ी संख्या में उन लोगों को पुनः हिन्दू धर्म में आने का मौका मिला, जिन्होंने लोभ, लालच, जान-माल के भय, बहकावे तथा हिन्दू धर्म की छुआछूत आदि रूढ़ियों के कारण इस्लाम तथा ईसाई धर्म स्वीकार कर लिया था। जानकार सूत्रों के अनुसार स्वामी दयानंद ने सबसे पहली शुद्धि अपने देहरादून प्रवास के समय एक मुसलमान युवक की थी और उसे अलखधारी नाम दिया। काबिलेगौर हो कि हिन्दुओं की स्वधर्म में वापसी कराने की दिशा में स्वामी जी का ध्यान 1912 में उनके कलकत्ता प्रवास के समय तब आकर्षित हुआ था, जब कर्नल यू. मुखर्जी ने 1911 की जनगणना के आधार पर यह सिद्ध किया था कि अगर हिन्दुओं की जनसंख्या इसी प्रकार कम होती रही तो अगले सवा चार सौ वर्षों में उनका अस्तित्व मिट जाएगा। तब इस समस्या से निपटने के लिए स्वामी जी ने शुद्धि सभा का गठन किया था। स्वामी जी के देहावसान के पश्चात उनके शिष्य स्वामी श्रद्धानन्द ने अपने गुरु के इस अभियान को तेज धार दी थी और लाखों मुसलमानों तथा ईसाइयों की शुद्धि कराकर स्वधर्म में वापसी कराई थी। हालांकि, यह आन्दोलन विशुद्ध धार्मिक था किन्तु उस समय आर्य समाज के इस शुद्धि आंदोलन का राजनीतिक स्तर पर व्यापक विरोध हुआ। कांग्रेस के श्री राजगोपालाचारी, मोतीलाल नेहरू एवं पंडित जवाहरलाल नेहरू ने धर्म परिवर्तन को व्यक्ति का मौलिक अधिकार मानते हुए इसे असामयिक व अप्रासंगिक बताया था, किन्तु वे स्वामी जी को उनके लक्ष्य से डिगा नहीं सके थे।

स्वामी ने रखी स्वतंत्रता की  नींव

स्वामी दयानंद सरस्वती धर्म सुधारक ही नहीं समाज सुधारक और सच्चे राष्ट्रवादी भी थे। 1857 में स्वतंत्रता-संग्राम में स्वामी जी ने राष्ट्र को मार्गदर्शन दिया और उनका कहना था कि विदेशी शासन किसी भी रूप में स्वीकार करने योग्य नहीं है। उन्होंने अपने प्रवचनों के माध्यम से भारतवासियों को राष्ट्रीयता का उपदेश दिया और भारतीयों को देश पर मर मिटने के लिए प्रेरित करते रहे। देश की आजादी के वह इतने बड़े समर्थक थे कि इन्होंने गर्वनर जनरल लॉर्ड नार्थब्रुक से साफ-साफ कह दिया था कि ’मेरे देशवासियों को पूर्ण स्वाधीनता प्राप्त हो।’ यही कारण था कि अंग्रेज उनसे नाराज हो गए थे। बालगंगाधर तिलक ने कहा था कि स्वराज का मंत्र सबसे पहले स्वामी दयानंद सरस्वती ने ही दिया था। सरदार पटेल का भी कहना था ’भारत की स्वतंत्रता की नींव वास्तव में स्वामी दयानन्द सरस्वती ने रखी थी।’ एनी बेसेंट ने कहा था कि स्वामी दयानन्द ऐसे पहले व्यक्ति थे, जिन्होंने कहा कि ‘भारत भारतीयों के लिए है।’ बताते चलें कि स्वामी दयानन्द सरस्वती ने सांस्कृतिक और आध्यात्मिक क्रांति के साथ परतंत्रता में जकड़े देश को आजादी दिलाने के लिए राष्ट्रीय क्रांति का बिगुल भी बजाया था। अपने प्रवचनों में वे स्रोताओं को प्रायः राष्ट्रवाद का उपदेश देते थे और देश के लिए मर मिटने की भावना भरते थे। सन् 1857 की क्रान्ति की सम्पूर्ण योजना भी स्वामीजी के नेतृत्व में ही तैयार की गई थी और वही उसके प्रमुख सूत्रधार भी थे। बताया जाता है कि इस योजना के तहत उन्होंने हरिद्वार पहुंच कर वहां पांच ऐसे व्यक्तियों से मुलाकात की, जो आगे चलकर सन् 1857 की क्रान्ति के कर्णधार बने। ये पांच व्यक्ति थे नाना साहेब, अजीमुल्ला खां, बाला साहब, तात्या टोपे तथा बाबू कुंवर सिंह। इस बैठक में यह तय हुआ था कि फिरंगी सरकार के विरुद्ध सम्पूर्ण देश में सशस्त्र क्रान्ति के लिए आधारभूमि तैयार की जाए। ज्ञात हो कि 1857 के पश्चात के क्रांतिकारियों पर भी महर्षि दयानंद सरस्वती का अत्यंत प्रभाव था। क्रांतिकारी विनायक दामोदर सावरकर, लाला हरदयाल, भाई परमानंद, सेनापति बापट, मदनलाल धींगरा जैसे शिष्यों ने स्वाधीनता आंदोलन में कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा। ज्ञात हो कि अमेरिका में भारत की स्वाधीनता के लिए प्रयास करने वाले भाई परमानंद, डीएवी काॅलेज लाहौर में इतिहास और राजनीति के प्रो. जयचंद्र विद्यालंकार और प्रसिद्ध क्रांतिकारी सरदार भगत सिंह के दादा सरदार अर्जुन सिंह और पिता किशन सिंह विशुद्ध आर्यसमाजी थे। Swami Dayanand Saraswati भगत सिंह के विचारों पर भी आर्य समाज के संस्कारों की छाप स्पष्ट दिखाई पड़ती है। सांडर्स को मारकर भगत सिंह आदि पहले तो लाहौर के डीएवी काॅलेज में ठहरे, फिर योजनाबद्ध तरीके से कलकत्ता जाकर आर्य समाज में शरण ली और आते समय आर्य समाज के चपरासी तुलसीराम को अपनी थाली यह कहकर दे आए थे कि कोई देशभक्त आए तो उसको इसी में भोजन करवाना। दिल्ली में भगत सिंह, वीर अर्जुन कार्यालय में स्वामी श्रद्धानंद और पंडित इंद्रविद्या वाचस्पति के पास ठहरे थे। उस समय ऐसे लोगों को ठहराने का साहस केवल आर्य समाज के सदस्यों में ही था। स्वतंत्रता प्राप्ति से पूर्व लगभग सभी स्थानों में ऐसी स्थिति थी कि कांग्रेस के प्रमुख कार्यकर्ताओं को यदि कहीं आश्रय, भोजन, निवास आदि मिलता था, तो वह किसी आर्य समाजी के घर में ही मिलता था। आर्य समाज के गुरुकुलों में ही क्रांतिकारियों के छिपने का स्थान हुआ करता था। काकोरी कांड को अंजाम देने से पूर्व दो दिन पहले काकोरी कांड की योजना मुरादाबाद आर्य समाज में ही बनाई गई थी, जिसमें चंद्रशेखर आजाद, पंडित राम प्रसाद बिस्मिल, ठाकुर रोशन सिंह, राजेंद्र लहरी आदि क्रांतिकारी उपस्थित थे। काबिलेगौर हो कि मंगल पांडे, नाना साहब, अजीमुल्लाह खां, तात्या टोपे, कुंवर सिंह, रानी लक्ष्मीबाई, वासुदेव बलवंत फड़के, श्यामजी कृष्णवर्मा, सूफी अंबा प्रसाद, लाला लाजपतराय, सरदार अजीत सिंह, सरदार स्वर्ण सिंह, सरदार किशन सिंह, ठाकुर केसरी सिंह बारहठ, दामोदर हरी चाफेकर, बाल कृष्ण हरी चाफेकर, भाई परमानंद, कन्हैयालाल दत्त, प्रफुल्ला चाकी, बाघा यतींद्रनाथ मुखर्जी, भगत सिंह, सुखदेव, राजगुरु, चंद्रशेखर आजाद, सुभाष चंद्रबोस, अशफाकउल्ला खान, ठाकुर रोशन सिंह, रामप्रसाद बिस्मिल, राजेंद्र लहरी आदि असंख्य क्रांतिवीर आर्य समाज के ही सिपाही थे। अंग्रेजों के रिकाॅर्ड के अनुसार बलिदानी आर्यों की संख्या 07 लाख 32 हजार बताई जाती है अर्थात आर्य समाज के इतने क्रांतिकारी शहीद हुए, तब जाकर यह देश आजाद हुआ था।

एक राष्ट्रभाषा के रूप में हिन्दी का समर्थन

स्वामी दयानंद ने गांधी जी से बहुत पहले ही यह समझ लिया था कि हिन्दी ही राष्ट्रीय एकता की स्थापना करने वाली सक्षम भाषा है। यद्यपि दयानन्द जी की मातृभाषा गुजराती थी, उनका अध्ययन और शिक्षण संस्कृत के माध्यम से हुआ था, फिर भी उन्होंने अपनी अनेक कृतियों, लेखों एवं व्याख्यानों में हिन्दी भाषा का ही प्रयोग किया। इसके पीछे उनका स्पष्ट दृष्टिकोण था कि जिस देश में एक भाषा, एक धर्म तथा एक वेश-भूषा को महत्व नहीं दिया जाएगा, उसकी एकता निरंतर डावां-डोल ही रहेगी। वे चाहते थे कि कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक पूरे देश की एक भाषा हो, इसीलिए उन्होंने हिन्दी को आर्यभाषा के रूप में स्थापित करने का सघन अभियान चलाया था। धर्म सुधार और समाज सुधार के लिए उन्होंने हिंदी भाषा में ही प्रचार किया। स्वयं गुजराती तथा संस्कृत के उद्भट विद्वान होते हुए भी उन्होंने अपना प्रसिद्ध ग्रंथ ‘सत्यार्थ प्रकाश’ का प्रकाशन हिंदी में ही करवाया था। महर्षि दयानन्द ने अपने समय में गौरक्षा का आंदोलन भी चलाया था। इसके लिए स्वामी जी अनेक बड़े अंग्रेज राज्याधिकारियों से मिले थे और गौरक्षा के पक्ष में अपने तर्कों से उन्हें गौ हत्या को बंद करने के लिए सन्तुष्ट व सहमत किया था। उन्होंने करोड़ों लोगों के हस्ताक्षर कराकर महारानी विक्टोरिया को भेजने की योजना भी बनाई थी, जो तेजी से आगे बढ़ रही थी परन्तु विष के द्वारा उनकी हत्या कर दिए जाने के कारण गौरक्षा का कार्य अपने अन्तिम परिणाम तक नहीं पहुंच सका। ईश्वर से गौरक्षा की प्रार्थना करते हुए वह ‘गोकरुणानिधि’ पुस्तक की भूमिका में महर्षि दयानन्द लिखते हैं कि सर्वशक्तिमान् जगदीश्वर इस सृष्टि के सभी मनुष्यों की आत्मा में दया और न्याय को प्रकाशित करें, जिससे वे सब दया और न्याययुक्त होकर सर्वदा सर्वोपकारक काम करें और स्वार्थपन से पक्षपातयुक्त होकर कृपा पात्र गाय आदि पशुओं का विनाश न करें ताकि दुग्ध आदि पदार्थों और खेती आदि क्रियाओं की सिद्धि से सब मनुष्य आनंद में रहें। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि वह गौ का मांस खाने वाले मनुष्यों के हृदयों में सत्य ज्ञान का प्रकाश करे, जिससे वह गौहत्या व गौमांस भक्षण का त्याग करके गौ हत्या के महापाप और ईश्वर के दण्ड से बच सकें। पूनम नेगी (अन्य खबरों के लिए हमें फेसबुक और ट्विटर(X) पर फॉलो करें व हमारे यूट्यूब चैनल को भी सब्सक्राइब करें)