नई दिल्लीः कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की एकादशी तिथि के दिन चातुर्मास समाप्त होने के बाद भगवान श्रीहरि जागते हैं। इसीलिए आज के दिन को देवोत्थानी एकादशी भी कहा जाता है। आज के ही भगवान विष्णु के शालीग्राम रूप और माता तुलसी का विवाह भी किया जाता है। तुलसी भगवान विष्णु को बेहद प्रिय हैं। तुलसी के पत्तों के बिना भगवान श्रीहरि का भोग अधूरा माना जाता है। तुलसी विवाह कराने से वैवाहिक जीवन में आ रही परेशानियां शीघ्र ही दूर हो जाती हैं।
कौन हैं तुलसी माता और शालीग्राम
पूर्व जन्म में तुलसी का नाम वृंदा था और वह भगवान विष्णु की परम भक्त थीं। उनका जन्म राक्षस कुल में हुआ था। वृंदा जब बड़ी हुईं तो उनका विवाह राक्षस कुल के ही दानव राज जलंधन से हुआ। जलंधर समुद्र से उत्पन्न हुआ था। वृंदा बहुत पतिव्रता स्त्री थी। वह अपने पति को हमेशा सेवा करती थी। एक बार की बात है जब देवताओं और दानवों के बीच भयंकर युद्ध हुआ। जब जलंधर युद्ध पर जाने लगा तो वृंदा बोलीं- स्वामी आप युद्ध पर जा रहे हैं, आप जब तक युद्ध में रहेंगे, मैं पूजा में बैठकर आपकी जीत के लिए अनुष्ठान करुंगी। जब तक आप नहीं लौट आते मैं अपना संकल्प नहीं छोड़ूंगी। जलंधर युद्ध में चला गया और वृंदा व्रत का संकल्प लेकर पूजा में बैठ गई। वृंदा के व्रत के प्रभाव से देवताओं की हार होने लगी। तब भयभीत होकर सभी देवता भगवान विष्णु के पास पहुंचे और उनसे प्रार्थना करने लगे। इस पर भगवान बोले कि वृंदा मेरी परम भक्त है, मैं उससे छल नहीं कर सकता। तब देवताओं ने कहा कि भगवान कोई भी उपाय निकालें बस आप हमारी मदद करें।
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इस पर भगवान विष्णु ने वृंदा का सतीत्व भंग करने के लिए जलंधर का रूप धरा और उसके महल में पहुंच गये। वृंदा ने जैसे ही पति जलंधर को देखा और बेहद प्रसन्न हुई और पूजा से उठ पति के चरणों को छू लिया। जैसी ही वृंदा का संकल्प टूटा, वैसे ही युद्ध में देवताओं ने जलंधर को मार गिराया और उसका सिर धड़ से अलग कर दिया। जलंधर का कटा हुआ सिर वृंदा के पास आ गिरा। इस पर वृंदा ने आश्चर्य से भगवान की ओर देखा जिन्होंने जलंधर का रूप धर रखा था। पति का सिर देखकर कुपित वृंदा ने भगवान विष्णु को श्राप दे दिया और कहा कि वह पत्थर के हो जाए। इसके बाद देवताओं के आग्रह पर वृंदा ने अपना श्राप वापस ले लिया। इसके बाद वृंदा अपने पति का सिर लेकर सती हो गईं। वृंदा की राख से एक पौधा निकला तब भगवान विष्णु ने उस पौधे का नाम तुलसी रखा। साथ ही यह आषीर्वाद दिया कि मैं इस पत्थर रूप में भी रहुंगा, जिसे शालिग्राम के नाम से तुलसी के साथ ही पूजा जाएगा। इतना ही नहीं भगवान ने यह भी कि किसी भी शुभ कार्य में बिना तुलसी के भोग के पहले कुछ भी स्वीकार नहीं करुंगा। तब से ही तुलसी की पूजा होने लगी और कार्तिक मास में तुलसी का विवाह शालिग्राम के साथ किया जाता है।
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