देश में नागरिकता संशोधन कानून (सीएए) देश में पिछले दिनों नोटिफाई किया जा चुका है। हालांकि संसद से पारित होने के अगले दिन 12 दिसंबर 2019 को ही राष्ट्रपति ने इस कानून को मंजूरी दे दी थी। पर इसके साढ़े चार साल बाद जाकर यह नोटिफाई हुआ है। सीएए का लाभ पाकिस्तान, अफगानिस्तान और बांग्लादेश से हिंदू, सिख, ईसाई, जैन, बौद्ध और पारसी धर्म के ऐसे लोगों को दिया जाना है जो शरणार्थी के तौर पर 31 दिसंबर 2014 तक भारत आ गये थे।
उन्हें नये नियम के अनुसार यहां की नागरिकता मिल सकती है। भारत में निवास के प्रमाण के तौर पर बीस तरह के दस्तावेजों में से एक और पड़ोसी देश के निवास के प्रमाण के तौर पर 9 में से एक दस्तावेज को आवेदन के साथ लगाने की जरूरत है। संविधान में नागरिकता के बारे में कानून बनाने के लिए संसद और केंद्र सरकार को सभी अधिकार हासिल हैं। केंद्र सरकार ने तो सीएए के मामले पर अपनी राय जाहिर कर दी है। इसका स्वागत बड़ी संख्या में दूसरे देशों से आए शरणार्थियों ने किया भी है पर इसे लेकर सियासत भी शुरू हो गयी है। उच्चतम न्यायालय में इसे लेकर 200 से अधिक याचिकाएं लग चुकी हैं कि इसे रोका जाए।
याचिकाकर्ताओं के मुताबिक, इस वर्ष अगले कुछ महीनों (अप्रैल-जून) के दौरान लोकसभा के चुनाव होने हैं। ऐसे में सरकार की मंशा संदिग्ध है। उनकी मानें तो दूसरे देशों से आए मुस्लिम शरणार्थियों को भी इसका लाभ मिले। दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल की मानें तो यह पाकिस्तान और बांग्लादेश के लाखों 'अवैध गरीब और बेकार प्रवासियों तथा घुसपैठियों' के लिए निमंत्रण पत्र जैसा है। उनके इस बयान के विरोध में दिल्ली की अवैध बस्तियों में रह रहे सैकड़ों पाकिस्तानी हिंदू शरणार्थियों ने केजरीवाल के निवास के आगे प्रदर्शन भी किया है। कांग्रेस नेता राहुल गांधी इस कानून की आलोचना कर चुके हैं।
इसी पार्टी के जयराम रमेश सीएए के नियमों के प्रचार के समय पर सवाल उठाने के साथ-साथ इसे विवादास्पद कानून बता चुके हैं। गृह मंत्री अमित शाह ने नागरिता कानून पर राहुल गांधी से सार्वजनिक मंच पर आकर इस मुद्दे पर अपनी पार्टी का पक्ष रखने को कहा है। विपक्ष तुष्टीकरण की राजनीति में लगा है। रोचक यह है कि देश के सियासी दलों ने ही नहीं, अमेरिका के विदेश विभाग तक ने अपनी चिंता जाहिर कर दी है। विभाग के प्रवक्ता मैथ्यू मिलर ने अपनी सामान्य 'ब्रीफिंग' में कहा है कि अमेरिका सीएए को लेकर चिंतित है। इसका गंभीर अध्ययन कर रहा है, वह सभी धर्मों,आस्थाओं की समानता के पक्ष में खड़ा रहेगा। जेनेवा की अंतरराष्ट्रीय संधि का उल्लंघन बताते हुए अमेरिका और संयुक्त राष्ट्र ने इस कानून की आलोचना कर डाली है।
भारतीय मुसलमानों से कोई लेना देना नहीं
सामान्यतः और वैधानिक तौर पर भी यह माना जाता है कि जो लोग 26 जनवरी 1950 को भारत के अधिकार क्षेत्र में निवास करते थे या जिनका जन्म इस देश में हुआ हो या जिनके माता-पिता में से कोई भारत का नागरिक हो, वे भारतीय नागरिक हैं। गृह मंत्रालय की मानें तो सीएए का भारतीय मुसलमानों से कोई लेना-देना नहीं है। यह कानून अवैध अप्रवासियों के निर्वासन से भी जुड़ा हुआ नहीं है। पुराने कानूनों के अनुसार प्राकृतिक आधार पर किसी को नागरिकता दी जा सकती है। ऐसे में मुसलमानों को भारत में नागरिकता हासिल करने पर कोई रोक नहीं है। साल 1955 में नागरिकता कानून बनाया गया था।
इसके अनुसार, 9 राज्यों के गृह सचिव और 30 से ज्यादा जिलाधिकारियों को नागरिकता देने का अधिकार है। इस कानून के हिसाब से पिछले चार सालों में गृह मंत्रालय को तीन देशों के शरणार्थियों में से 8244 आवेदन मिले। इनमें से 3177 अल्पसंख्यकों को देश की नागरिकता मिली। ऐसे में कई लोग नया कानून बनाने की जरूरत पर भी सवाल उठाते हैं। 1947 में इस देश का विभाजन ही धर्म के आधार पर हुआ था। यहां से पाकिस्तान गये या वहां से पहले से रह रहे अल्पसंख्यक हिंदुओं के साथ धर्म के आधार पर लगातार उत्पीड़न की खबरें अब भी सामने आती रह रही हैं। संविधान में नागरिकता देने के लिए धर्म का आधार शामिल नहीं है।
ऐसे में भाजपा और उसके समर्थक दलों को छोड़ विपक्ष शासित कई राज्यों के साथ अनेक नेता सीएए को विभाजनकारी बता रहे हैं। भेदभावपूर्ण भी बताने में लगाने हैं। सांसद ओवैसी के हिसाब से भारत में धर्म या राष्ट्रीयता के आधार पर नागरिकता का निर्धारण करना गलत है, गैर कानूनी भी है। पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के अनुसार, इस कानून के तहत नागरिकता के आवेदन से लोग अवैध शरणार्थी बन सकते हैं। केरल की विधानसभा में इस कानून के खिलाफ प्रस्ताव भी पारित कर दिया गया है। साथ ही केरल सरकार ने उच्चतम न्यायालय का दरवाजा भी खटखटाया है। असम के मुख्यमंत्री हेमंत बिस्व शर्मा ने कहा है कि एनआरसी में शामिल हुए बगैर किसी को नागरिकता मिली है तो वे अपने पद से त्यागपत्र दे देंगे।
सही रिकॉर्ड रख पाना सबसे बड़ी समस्या
नागरिकता संशोधन कानून (सीएए) और इसे एनआरसी (नागरिकों के रजिस्टर) के साथ जोड़ने पर कई तरह के भ्रम की स्थिति भी बनती रही है। वर्ष 2019 में सीएए का विरोध इसलिए हुआ क्योंकि इसके साथ एनआरसी भी जुड़ा था। वर्ष 2003 में जनगणना कानून के तहत राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर (एनपीआर) के लिए कानून बना था। फिर नागिरकता कानून के तहत 2004 में नागरिकों के रजिस्टर बनाने का प्रावधान किया गया। वर्ष 2010 में पहला राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर बनाया गया। असम जैसे राज्यों में इस पर अनेक विवाद हुए। इसके बाद इसे ठंडे बस्ते में डाल दिया गया। इसके बाद यूपीए और फिर वर्तमान भाजपा सरकार ने आधार नंबर को आगे बढ़ाया।
लेकिन सत्यापन की सही व्यवस्था के अभाव में आधार नागरिकता और निवास का सही प्रमाण नहीं माना जाता। दस्तावेजों की इन उलझनों की वजह से भारत में नागरिकों का सही रिकॉर्ड रखना एक टेढ़ी खीर बन गया है। इसलिए अवैध शरणार्थियों को भारत से वापस भेजना कानूनी तौर पर मुश्किल और प्रशासनिक तौर पर असंभव सा बन गया है। संसद से बनाये गये कानूनों को संसद या सुप्रीम कोर्ट से ही रद्द किया जा सकता है। दिसंबर 2019 में सुप्रीम कोर्ट ने याचिकाओं पर नोटिस जारी कर केंद्र सरकार से जवाब मांगा था। सरकारी वकील ने उस दौरान बताया था कि अभी नियम नहीं बने हैं सो यह कानून लागू नहीं होगा। नियम जारी होने के बाद कई मुस्लिम संगठनों ने उच्चतम न्यायालय में अर्जी दायर कर इस कानून के क्रियान्वयन पर रोक लगाने की मांग की है। कहा जा रहा है कि सीएए जैसे कानून से अगर देश के किसी हिस्से को फर्क पड़ेगा तो वो है असम।
भारतीय नागरिकता कानून में अब तक जितने भी परिवर्तन किए गए हैं, उनसे असम को अलग रखा गया है। यह इस राज्य में अवैध प्रवासियों के विरोध में 1979 के बाद हुए आंदोलन का ख्याल रखते हुए किया गया। ब्रह्मपुत्र घाटी और जनजातीय क्षेत्रों के असमिया भाषी लोगों का मानना है कि करोड़ों बांग्लादेशी उनके राज्य में अवैध रूप से आकर बस गए हैं। इसके चलते आबादी का संतुलन बिगड़ गया है। आरएसएस चार दशकों से असम के हिंदुओं को समझाने का अभियान चला रहा है कि वे बंगाली मुसलमानों व हिंदुओं के बीच फर्क करें। इसमें वह कुछ हद तक ही सफल रह सके हैं। असम का मामला अलग है। वहां एनआरसी की प्रक्रिया पहले ही शुरू कर दी गई थी।
बाद में असम दोहरे पेंच में फंस गया। पहले तो एनआरसी की प्रक्रिया में कई हिंदू प्रवासी विदेशी निकले। भाजपा, संघ के तमाम प्रचार और उभार के बावजूद बड़ी संख्या में कई ऐसे असमी हैं जो बंगाली हिंदुओं को स्वीकारने को राजी नहीं हैं। यही वजह है कि मुख्यमंत्री हिमंत बिस्वा सरमा अब किसी नए आंदोलन को रोकने के लिए यह कह रहे हैं कि लाखों-करोड़ों बंगाली हिंदुओं को शामिल करने का विचार हास्यास्पद है। उनका कहना है कि बस बराक घाटी में करीब '50-80 हजार लोगों (हिंदुओं)' को ही-शामिल किया जा सकता है। ऐसे में कहा जा रहा कि इस कानून से अगर इतने ही लोगों को लाभ मिलेगा, तो इसकी जरूरत ही क्या थी?
कानूनों को मानना राज्यों के लिए बाध्यकारी
केरल जैसे राज्य भले सीएए के खिलाफ विधानसभा में प्रस्ताव ला चुके हों, पर यह तार्किक और आसान नहीं। किसी कानून पर विरोध प्रदर्शन करना नेताओं, दलों का संवैधानिक अधिकार भले हो, पर राज्यों को कानून को मानना ही होता है। संविधान के अनुच्छेद 256 और 257 में इसे स्पष्ट कहा गया है। संसद द्वारा बनाये गये कानून और नियमों को हर हाल में मानना राज्य सरकारों के लिए बाध्यकारी है। नये कानून (सीएए) से नागिरकों को हासिल अनुच्छेद 14 के समानता के अधिकार का उल्लंघन नहीं होता। इसके अलावा विदेशियों को भारत में नागरिकता हासिल करने का मौलिक अधिकार तो कतई नहीं है। यूरोप के अनेक देशों और अमेरिका सहित दूसरे देशों में राष्ट्रीय सुरक्षा के अनुसार नागिरकता के नियम तय किये गये हैं।
ऐसे में भारत में सभी शरणार्थियों को नागरिकता देने का कानून लागू करने की मांग इस देश की अखंडता और एकता के लिहाज से कतई ठीक नहीं। सीएए से भले ही पड़ोसी देशों मे प्रताड़ित अल्पसंख्यक समुदाय के लोगों को इस देश में नागरिकता दिए जाने की राह बनी हो पर अवैध घुसपैठियों को देश से बाहर निकालने के बारे में अब भी स्पष्ट रोडमैप तय किए जाने की जरूरत है। इसके लिए विशेष कानून की दरकार है। इसके अभाव में राष्ट्रीय सुरक्षा से जुड़े मुद्दों का समाधान करना कठिन है। हर देशवासी इस उम्मीद में है कि वर्तमान केंद्र सरकार इस मसले का समाधान ढूंढने में तेजी से आगे बढ़ेगी। क्योंकि जिस गति से अवैध घुसपैठियों की समस्या बढ़ रही है, वह चिंताजनक है। कौन जायज शरणार्थी है, कौन नाजायज, इसे देश के आने वाले भविष्य को देखते हुए जल्द ही तय करते हुए रणनीति को धरातल पर उतारना होगा।
अमित झा