प्रयागराजः संगम की रेती पर पूरे एक माह तक चलने वाला कल्पवास अनुष्ठान बुधवार को माघी पूर्णिमा के साथ समाप्त हो जाएगा। त्याग और समर्पण की तपस्या का यह अनुष्ठान पौष पूर्णिमा स्नान के साथ इस वर्ष 17 जनवरी को प्रारम्भ हुआ था। बुधवार को माघी पूर्णिमा पर पवित्र संगम पर स्नान के लिए श्रद्धालुओं की भारी भीड़ उमड़ती है। माघी पूर्णिमा स्नान के बाद कल्पवासी अपने घर की ओर प्रस्थान करते हैं। संत तुलसीदास भी लिखते हैं- ‘‘माघ मकर गत रवि जब होई, तीरथ पतिहि आव सब कोई।’’ इसके अनुसार माघ के महीने में जब सूर्य मकर गत यानी मकर राशि में प्रवेश कर जाता है, उस समय तीर्थराज प्रयाग आकर लोग त्रिवेणी में स्नान करते हैं और मास पर्यन्त यहां प्रवास कर कल्पवास और यज्ञादि अनुष्ठान करते हैं। इस वक्त त्रिवेणी संगम के दर्शन के लिए देवता भी लालायित हो उठते हैं।
माघ पूर्णिमा का महत्व
हिंदू धर्म में माघ पूर्णिमा का बेहद खास महत्व है। ऐसा मान्यता है कि माघ पूर्णिमा के दिन पवित्र गंगा नदी में डुबकी लगाने और दान पुण्य करने में सभी पापों से मुक्ति मिल जाती है और सुख-सौभाग्य की भी प्राप्ति होती है। ऐसा माना जाता है कि माघ पूर्णिमा के भगवान श्रीहरि स्वयं गंगाजल में वास करते हैं। अतः इस दिन पवित्र गंगा नदी के जल के स्पर्श मात्र से भी व्यक्ति को सभी दुखों का नाष हो जाता है और उसे मोक्ष की भी प्राप्ति होती है।
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क्या है कल्पवास?
संगम की रेती पर कायाकल्प के लिए किया जाने वाला तप कल्पवास कहलाता है। यह व्रत पौष पूर्णिमा के साथ ही शुरू हो जाता है। इस दिन गंगा स्नान के बाद श्रद्धालु कल्पवास का विधि विधान से संकल्प लेते हैं। वे तीर्थ पुरोहितों के आचार्यत्व में मां गंगा, नगर देवता वेणी माधव और पुरखों का स्मरण कर व्रत शुरू करते हैं। महीने भर जमीन पर सोते हैं। पुआल और घास-फूस उनका बिछौना होता है। तीर्थ पुरोहितों के आचार्यत्व में मंत्रोच्चार के बीच मां गंगा, वेणी माधव एवं पूर्वजों का स्मरण कर त्याग-तपस्या के 21 नियमों को पूरी निष्ठा से निभाते हैं। साथ ही मेला क्षेत्र में बने अपने अस्थाई झोपड़ी या तंबू के दरवाजे के पास ये कल्पवासी बालू में तुलसी का बिरवा लगाते हैं और जौ बोते हैं। सुबह स्नान के बाद यहां जल अर्पित करते हैं। सुबह और शाम दीपक भी जलाते हैं। कल्पवास समाप्त होने के बाद वापस जाते समय वह इसे प्रसाद स्वरूप अपने घर लेकर जाएंगे। गंगा की रेती पर मास पर्यन्त कठोर तपस्या के बाद माघी पूर्णिमा का स्नान कर ये कल्पवासी (श्रद्धालु) जब अपने घर वापस लौटते हैं तो वहां परिजन देवताओं की तरह पूजते हैं। कल्पवास से वास्तव में कायाकल्प होता है। प्रयाग की तपस्थली अद्भुत है। हम वर्षों से इसकी अनुभूति कर रहे हैं। तीर्थराज की यह परम्परा आदिकाल से है। प्रयाग का मतलब ही है, वह पवित्र धरती जहां प्राचीन काल में खूब यज्ञ हुए हों। मान्यता है कि ब्रह्माण्ड की रचना से पहले भगवान बह्मा ने भी प्रयाग में अश्वमेघ यज्ञ किया था। दशाश्वमेध घाट और ब्रह्मेश्वर मंदिर इस यज्ञ के प्रतीक स्वरुप आज भी यहां मौजूद हैं। इस यज्ञ के कारण यहां कुम्भ का भी विशेष महत्व है, जो संगम की पवित्र रेती पर हर बारहवें साल आयोजित होता है। इसी क्रम में आज भी गंगा, यमुना और अदृश्य सरस्वती के पावन संगम पर हर साल माघ माह में तंबुओं और घास-फूस की झोपड़ियों का एक नया शहर बस जाता है, जो माघ मेला के नाम से जाना जाता है। हर छठे साल यही मेला अर्ध कुम्भ और हर बारहवें वर्ष कुम्भ के नाम से पूरी दुनिया में विख्यात है।
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