विश्व के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश भारत में लोकसभा चुनाव की घोषणा होने के बाद सभी राजनीति दल जोर अजमाइश में जुट गए हैं। भले ही देश में अनगिनत राजनीति दल हों पर मुख्य मुकाबला भाजपा नेतृत्व वाले एनडीए और कांग्रेस के इंडिया गठबंधन के बीच है। ऐसे में इन दिनों एक सवाल तेजी से हवा में उछल रहा है कि वोट के हिसाब से कौन भारी है? एनडीए या इंडिया? इसका कोई स्पष्ट डेटा उपलब्ध नहीं है, लेकिन इतना तय है कि नॉर्थ-ईस्ट में एनडीए मजबूत दिखती है। कारण यह है कि वहां आदिवासी आबादी सबसे ज्यादा है और एनडीए ज्यादातर राज्यों में सत्ता में है। दक्षिण भारत में अनेक कारणों से भाजपा कमजोर है, लेकिन उत्तर प्रदेश में वह बहुत मजबूत है। बिहार में भी एनडीए की स्थिति अच्छी है। संभव है कि सीटों के हिसाब से चुनाव में कुछ कम या ज्यादा हो जाये, लेकिन जदयू से जुड़ने के बाद बिहार में भाजपा का आत्मविश्वास मजबूत हुआ है। कहने की जरूरत नहीं है कि अनेक छोटे दलों के साथ रिश्ता बनने की वजह से यह स्थिति बनी है। गुजरात-महाराष्ट्र में भी एनडीए मजबूत दिखता है। हिंदी भाषी राज्यों उत्तर प्रदेश राजस्थान, बिहार, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में लोकसभा सीटों के हिसाब से अभी एनडीए ही मजबूत है। पर, इसका असली आकलन लोकसभा चुनाव परिणाम के बाद किया जाएगा।
देश में नरेंद्र मोदी सरकार को उखाड़ फेंकने के लिए विपक्ष एकता के दावे कर रहा है। इसके बावजूद विपक्षी पार्टियों में काफी अंतर्विरोध देखा जा सकता है। नेशनल कांफ्रेस ने पटना बैठक में आम आदमी पार्टी को धारा 370 के मुद्दे पर घेरा था। आम आदमी पार्टी ने अध्यादेश के मुद्दे पर कांग्रेस को धमकी दी थी कि जब तक उसका स्टैंड क्लीयर नहीं होता है, केजरीवाल विपक्ष की किसी भी बैठक में हिस्सा नहीं लेंगे। विपक्ष की इस दिखावटी एकता में समानांतर कई विरोधाभास भी देखने को मिलते हैं। मसलन, टीएमसी जिसके खिलाफ राज्य में लड़ रही है। उन्हीं कम्युनिस्ट पार्टियों और कांग्रेस को जगह देने के लिए अपने राज्य में कितनी तैयार होगी? जहां तक हिंदी भाषी बेल्ट की बात है, लोकसभा की सबसे ज्यादा 80 सीटें यूपी में हैं। इनमें से 64 पर भाजपा, नौ पर बहुजन समाज पार्टी, तीन पर समाजवादी पार्टी, दो पर अपना दल (एस) और एक पर कांग्रेस का कब्जा है। एक सीट फिलहाल खाली है। यहां गठबंधन के हिसाब से और संसद में सदस्यों के हिसाब से भी भाजपा मजबूत दिख रही है। भाजपा ने यूपी के कई अलग-अलग जातीय और क्षेत्रीय पार्टियों को अपने साथ जोड़ा है। इसके विपरीत विपक्ष यहां बिखरा हुआ है। समाजवादी पार्टी, आरएलडी और कांग्रेस का ही यहां गठबंधन है। इसके अलावा विपक्ष से ही बसपा, एआईएमआईएम, अपना दल (कमेरावादी )अलग चुनाव लड़ेंगे। इस तरह अभी की स्थिति में तो भाजपा का पलड़ा भारी लग रहा है। यूपी के बाद महाराष्ट्र में सबसे ज्यादा 48 सीटें हैं। पिछली बार भाजपा और शिवसेना ने मिलकर चुनाव लड़ा था। तब भाजपा के 23 और शिवसेना के 18 सांसद चुने गए थे। यूपीए गठबंधन का हिस्सा रही एनसीपी के चार और कांग्रेस का एक उम्मीदवार चुना गया था। एआईएमआईएम का भी एक सांसद चुना गया था। अभी यहां एनसीपी और शिवसेना दोनों में ही फूट पड़ चुकी है। इन दोनों राजनीतिक पार्टियों के दो गुट बन चुके हैं। एक गुट एनडीए तो दूसरा इंडिया गठबंधन में है। आज की स्थिति में महाराष्ट्र के अंदर एनडीए का गठबंधन मजबूत माना जा सकता है।
कई राज्यों में कांग्रेस-बीजेपी के बीच सीधी टक्कर
पश्चिम बंगाल में सबसे ज्यादा 42 सीटें हैं। 2019 में इनमें से 22 सीटों पर तृणमूल कांग्रेस और 18 पर भाजपा की जीत हुई थी। बंगाल में चार बड़े दल हैं। इनमें टीएमसी, भाजपा, कांग्रेस, और सीपीएम हैं। अभी बंगाल के तीन दल एकसाथ आ गए हैं। इनमें टीएमसी, कांग्रेस और सीपीएम हैं। इनके आने से विपक्ष मजबूत तो हुआ है, लेकिन अभी सीट बंटवारे को लेकर जरूर तीनों के बीच विवाद हो सकता है। इसके उलट भाजपा अकेले चुनाव लड़ रही है, जिसका फायदा उसे मिल सकता है। बिहार में लोकसभा की 40 सीटें हैं। पिछली बार इनमें से 39 सीटों पर एनडीए उम्मीदवारों को जीत मिली थी। जेडीयू भी तब एनडीए का हिस्सा थी। 17 सीटों पर अभी भाजपा का कब्जा है। जेडीयू के 16 उम्मीदवार चुनाव जीतने में कामयाब हो गए थे। छह सीट पर लोजपा और एक पर कांग्रेस को जीत मिली थी। आरजेडी का कोई भी उम्मीदवार चुनाव नहीं जीत पाया था। अभी यहां जेडीयू, आरजेडी, कांग्रेस और सीपीआई का गठबंधन है। वहीं, भाजपा ने भी क्षेत्रीय और जातीय हिसाब से नया समीकरण बना लिया है। भाजपा ने छोटे-छोटे दलों को अपने साथ जोड़ लिया है। इसका फायदा पार्टी को इस चुनाव में मिल सकता है। तमिलनाडु में 39 लोकसभा सीटें हैं। 2014 में इन सभी सीटों पर एनडीए के उम्मीदवारों ने जीत हासिल की थी। हालांकि, 2019 में पासा पलट गया। एनडीए के खाते से सभी सीटें डीएमके के पास चली गई। भाजपा की नजर इस वक्त तमिलनाडु पर काफी अधिक है। यही कारण है कि एनडीए की बैठक में पीएम मोदी ने अपने ठीक बगल में एआईएडीएमके के मुखिया के. पलानीस्वामी को बैठाया था। फोटो सेशन में भी पीएम मोदी के ठीक बगल में पलानीस्वामी बैठे थे। तमिलनाडु में पट्टल्ली मक्कल काची (पीएमके) और टीएमसी (एम) के साथ भी भाजपा ने गठबंधन किया है।
मध्य प्रदेश, केरल, कर्नाटक, गुजरात, ओडिशा, राजस्थान ऐसे राज्य हैं, जहां प्रत्येक राज्य में 20 से ज्यादा सीटें हैं। मध्य प्रदेश, राजस्थान, कर्नाटक में कांग्रेस और भाजपा की सीधी लड़ाई है। गुजरात में भाजपा मजबूत स्थिति में है। ओडिशा में भाजपा की लड़ाई बीजू जनता दल से है। पंजाब में आम आदमी पार्टी, कांग्रेस भाजपा और शिरोमणि अकाली दल में टक्कर है। हरियाणा में भाजपा और कांग्रेस की सीधी लड़ाई है। ये वो राज्य हैं, जहां लोकसभा की 70 प्रतिशत से ज्यादा सीटें हैं। मतलब इन राज्यों में जीत हासिल करने वाला गठबंधन आसानी से केंद्र की सत्ता पर राज कर सकता है। उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी का कांग्रेस से गठबंधन हो चुका है, पर उसने कांग्रेस को सिर्फ 17 सीटे देकर उसकी हैसियत बता दी है। मतलब अपने हिसाब से वह काम कर रही है। पंजाब और दिल्ली की सत्ता पर काबिज आम आदमी पार्टी भी अपने इलाके में बहुत ज्यादा समझौता करती हुई नहीं दिखती है। विपक्ष में एक और महत्वपूर्ण बात यह है कि कांग्रेस को छोड़कर एक भी दल ऐसा नहीं है, जिसकी राष्ट्रीय स्तर पर पहचान हो। महाराष्ट्र में शरद पवार और उद्धव ठाकरे की पार्टियां टूट चुकी हैं। इनका जमीनी आकलन चुनाव बाद ही हो पायेगा, क्योंकि टूटन के बाद पहला चुनाव होने वाला है। एनडीए की खास बात यह है कि यहां पहले दिन से भाजपा बड़े भाई के रूप में है। बाकी सब छोटे भाई हैं। पर, एनडीए के कर्ता-धर्ता नरेंद्र मोदी, अमित शाह ने कई राज्यों और कई मौकों पर छोटा भाई बनने में संकोच नहीं किया। भाजपा ने कभी भी बड़ा भाई बनने की कोशिश नहीं की। नॉर्थ ईस्ट के ज्यादातर राज्यों में जहां से एक-दो एमपी आते हैं, वहां भी भाजपा ने छोटे दलों को सपोर्ट किया और केंद्र में उनका सपोर्ट लिया। इसी का परिणाम है कि अनेक सहयोगियों के जुड़ने, छूटने फिर जुड़ने के बावजूद बीते 25 साल से एनडीए का मजबूत वजूद कायम है। भाजपा ने नागालैंड से लेकर सिक्किम और यूपी से लेकर बिहार में छोटे-छोटे दलों को महत्व दिया और उनके साथ गठजोड़ किया। इसका दोनों को लाभ हुआ। अकेले चुनाव लड़ते हुए ये दल राज्यों में कुछ नहीं कर पाते थे। आज वे सत्ता में भागीदार हैं।
बदले राजनीतिक परिदृश्य में बढ़ी चुनौती
बिहार में जीतन राम मांझी, उपेन्द्र कुशवाहा, चिराग पासवान, उनके चाचा पशुपति पारस, उत्तर प्रदेश में अनुप्रिया पटेल, ओम प्रकाश राजभर, संजय निषाद ऐसे ही नाम हैं, जो अकेले कुछ खास कर पाने की स्थिति में नहीं हैं। भाजपा के साथ मजबूत हो जाते हैं। इन्हें मैनेज करना भी भाजपा के लिए बहुत आसान होता है। एनडीए में एक भी दल ऐसा नहीं है, जो एकदम सिर उठाकर बगावत कर सके। एनडीए ने अनेक मौकों पर बड़प्पन भी दिखाया। 2019 में प्रचंड बहुमत से जीतने वाली भाजपा ने एनडीए सहयोगियों को मंत्रिमंडल में साथ रखा। यह पहल छोटे दलों की नजर में उसे अलग स्थान देती है। वहीं साल 2004 में आम चुनाव के बाद वजूद में आई यूपीए (आज की इंडिया) टूटती-बिखरती रही है। यह एकता क्या गुल खिलाएगी, देखा जाना बाकी है। इसमें शामिल हर नेता की अपनी महत्वाकांक्षा है। सबको हर हाल में महत्वपूर्ण रहना है। देखना रोचक होगा कि आगे क्या स्थिति बन सकती है। भाजपा को केंद्र की सत्ता से हटाने के लिए विपक्ष का मोर्चा कांग्रेस ने संभाल रखा है। लोकसभा की प्रत्येक सीट पर भाजपा के खिलाफ संयुक्त विपक्ष की ओर से किसी एक प्रत्याशी को उतारकर सत्ता पक्ष को कड़ी चुनौती देने का प्रयास किया गया है। पिछले दो चुनावों के आंकड़े बताते हैं कि कांग्रेस-भाजपा की सीधी लड़ाई में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाला एनडीए गठबंधन भारी पड़ता आ रहा है। पिछले लोकसभा चुनाव में भाजपा ने 436 प्रत्याशी उतारे थे और कांग्रेस के 421 प्रत्याशी मैदान में थे। इनमें से 190 सीटें ऐसी थीं, जिनमें कांग्रेस और भाजपा के बीच सीधी लड़ाई थी। परिणाम हैरान करता है, क्योंकि इनमें भाजपा 175 एवं कांग्रेस 15 सीटें जीती थीं। इसके अलावा, मध्य प्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़ और उत्तराखंड समेत अन्य राज्यों में 134 सीटें हैं, जहां इंडिया अलायंस ज्यादा महत्व नहीं रखता है, क्योंकि पार्टियों के बीच पहले से ही कांटे की टक्कर है।
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2004 से 2019 तक चार लोकसभा चुनावों के दौरान राजनीतिक परिदृश्य काफी बदल गया है। भारतीय जनता पार्टी का जबरदस्त ग्राफ बढ़ा है। भाजपा 2004 में 138 सीटों (22.16 प्रतिशत) से बढ़कर 2019 में 303 सीटों (37.3 प्रतिशत) तक पहुंच गई। दूसरी ओर, कांग्रेस ने इस दरम्यान उतार-चढ़ाव देखा है। 2009 में कांग्रेस 206 सीटों (28.55 प्रतिशत) के साथ टॉप पर पहुंच गई थी। इससे पहले 2014 के चुनाव में 50 प्रतिशत से ज्यादा वोट लाकर भाजपा ने 136 सीटें जीती थीं। दोनों चुनावों के नतीजों का विश्लेषण करें तो 2019 में भाजपा के पक्ष में ज्यादा प्रचंड लहर दिखती है, क्योंकि आधा से ज्यादा वोट लाकर जीतने वाली सीटों की संख्या में 88 सीटों की वृद्धि हो गई। इन दोनों चुनावों में अकेले भाजपा को मिले कुल वोटों का फर्क आठ प्रतिशत का रहा, लेकिन सीटों की संख्या में ज्यादा वृद्धि नहीं देखी गई। भाजपा को 2014 में 282 सीटें मिली थीं, जो 2019 के लोकसभा चुनाव में बढ़कर 303 हो गईं। यानी 21 सीटें बढ़ीं। वोट प्रतिशत दोनों तरफ बढ़े। 2014 में भाजपा से अलग प्रत्याशियों में कुल 64 ने 50 प्रतिशत से ज्यादा मत पाए थे, जो 2019 में बढ़कर 117 हो गई। इनमें भाजपा के सहयोगी दल भी शामिल हैं। बिहार में भाजपा को दो सीटों पर 50 प्रतिशत से अधिक वोट मिले थे। गुजरात में 2014 और 2019 दोनों ही चुनावों में भाजपा के सभी 26 प्रत्याशी 50 प्रतिशत से अधिक वोट से जीते थे। पिछले आम चुनाव में भाजपा को 303 सीटें और कुल पोल वोट का 37 प्रतिशत प्राप्त हुआ था। इस बार भाजपा अतिरिक्त दस प्रतिशत वोट जोड़ने की रणनीति पर काम कर रही है। संगठन को प्रत्येक बूथ पर 370 वोट बढ़ाने का लक्ष्य मिला है। सफलता मिली तो 50 प्रतिशत से अधिक वोट लाकर जीतने वाली सीटों की संख्या फिर बढ़ सकती है। अब देखना होगा कि सत्ताधारी दल वाला गठबंधन एनडीए और विपक्षी एकता को प्रदर्शित करने वाला नया गठबंधन इंडिया इस चुनाव में क्या गुल खिलाता है। यह तो चुनाव परिणाम के बाद ही साफ हो सकेगा।
श्रीधर अग्निहोत्री
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