खूंटीः आजादी का 75वां अमृत महोत्सव तो हम मना रहे हैं, लेकिन आजादी के इतने साल बीत जाने के बाद भी देश में जब शिक्षा की स्थिति पर नजर डालें तो कई ऐसे गांव मिल जाएंगे जहां आज तक सरकारी स्कूलों के भवन तक नहीं हैं और लकड़ी की बनी झोपड़ी में कक्षाएं (schools run in huts) चलती हैं। कई स्कूल ऐसे भी हैं, जहां तक पहुंचने के लिए सड़क तक नहीं है। ऐसे सुदूरवर्ती गांवों के विद्यार्थियों खासकर छात्राओं के लिए पांचवीं कक्षा के बाद शिक्षा के द्वार बंद हो जाते हैं। हम बात कर रहे है झारखंड के खूंटी जिले की, यहां से 50 किमी दूर पश्चिमी सिंहभूम की सीमा से सटे बोहोण्डा पंचायत का तोतकोरा एक गांव है। कोचांग से साली गांव तक आधी पक्की आधी कच्ची सड़क है। साली गांव के आगे तीन किमी तक पहाड़ है, जिसकी पगडंडियों पर पैदल चलकर तोतोकरा गांव पहुंचा जा सकता है। इस गांव में एक सरकारी उत्क्रमित प्राथमिक विद्यालय है। सड़क नहीं होने के कारण आज तक विद्यालय का भवन तक नहीं बन पाया।
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19 साल पहले बनाई गई थी झोपड़ी
तोतकोरा गांव के साउ सोय बताते हैं कि 19 साल पहले ग्रामीणों ने जंगल से लकड़ियां काटकर एक झोपड़ी (schools run in huts) बनायी थी और उसके ऊपर प्लास्टिक का छप्पर है। यहां दो पारा शिक्षक हैं बरजू सोय और मार्टिन सोय। दोनों शिक्षक कोचांग से साली तक साईकिल से आते हैं और फिर पैदल पहाड़ों की पगडंडियों से होकर स्कूल जाते हैं। गर्मी और बारिश के मौसम में शिक्षकों को स्कूल जाने में काफी परेशानी होती है। स्कूल के बच्चे पांचवीं तक की पढ़ाई पूरा करने के बाद आगे की पढ़ाई के लिए खूंटी और पश्चिमी सिंहभूम के चक्रधरपुर और झरझरा के स्कूलों में अपना नामांकन कराते हैं। यहां स्कूल का संचालन नियमित रूप से होता है। बच्चों को मध्याह्न भोजन के साथ अन्य सुविधाएं भी मिलती हैं।
साउ सोय बताते हैं कि 17 साल पहले इस गांव में सिर्फ तीन लोग ही हिंदी बोल पाते थे, लेकिन दोनों पारा शिक्षकों की कोशिश के बाद अब गांव के लगभग सभी लोग हिंदी सीख गये हैं। बोहोण्डा पंचायत के कुदादारू गांव में स्कूल की हालत और भी बुरी है। तोतकोरा से सात पहाड़ियों को पैदल पार कर इस गांव तक पहुंचा जा सकता है, जहां स्थानीय पत्थरों से खड़ी की गयी दीवार और प्लास्टिक के तिरपाल से ढ़के छप्पर के नीचे स्कूल चलता है। यहां कभी-कभार ही शिक्षक आते हैं। कुदादारू के स्कूल को देखकर उसे किसी भी दृष्टिकोण से स्कूल नहीं कहा जा सकता, लेकिन है सरकारी स्कूल। इन गांवों तक पहुंचना आम लोगों के लिए आज भी आसान नहीं है। यह घोर नक्सल प्रभावित इलाका है।
उल्लेखनीय है कि ये सभी गांव खूंटी, सरायकेला और पश्चिमी सिंहभूम जिले की सीमा पर है और इस इलाके को प्रतिबंधित नक्सली संगठन भाकपा माओवादी का सेकेंड हेडक्वार्टर कहा जाता है। अड़की प्रखंड के तिरला पंचायत मुख्यालय में स्थित स्कूल भवन तक भी सड़क नहीं बनी है। पगडंडियों से होकर बच्चे स्कूल पहुंचते हैं। अड़की की ही सरगेया पंचायत के कई ऐसे स्कूल हैं, जहां तक पहुंचने के लिए सड़क तक नहीं है।
रनिया के कई स्कूलों तक जाने को नहीं है सड़क
खूंटी जिले का ही एक प्रखंड है रनिया। पहले लोग इसे कालापानी कहते थे। जिस कर्मचारी को सजा देनी होती थी, उसका तबादला रनिया प्रखण्ड में कर दिया जाता था। खैर झारखंड राज्य गठन के बाद स्थिति में तो काफी सुधार हुआ है लेकिन अधिकतर गांवों की स्थिति में अब तक कोई सुधार नजर नहीं आता। इसी प्रखंड में एक पंचायत है डाहु। यहां एक राजकीयकृत मध्य विद्यालय है गोरसोद और खटखुरा पंचायत के प्राथमिक विद्यालय ओलंगेर में विद्यालय तक पहुंचने के लिए कोई सड़क नहीं है। ओलंगेर में तो विद्यालय भवन भी नहीं है। इसके कारण बच्चों को पेड़ के नीचे बैठकर पढ़ाई करनी पड़ती है।
कमोवेश यही स्थिति आरसी मध्य एवं उच्च विद्यालय, पिडुल की भी है। आने-जाने के लिए पक्की सड़क भी बनी है, लेकिन विडम्बना है कि रास्ते में पड़ने वाले सिकरिया नाला पर पुलिया नहीं है। इसके कारण बरसात के दिनों में स्कूली बच्चों को जान जोखिम में डालकर स्कूल जाना पड़ता है। इस सम्बंध में डाहु पंचायत के मुखिया रिमिस कंडुलना, खटखुरा की मुखिया मंजू सुरीन और जयपुर की मुखिया प्रतिमा कंडुलना ने नाराजगी जाहिर करते हुए कहा कि यह बहुत ही दुःख की बात है। सरकार को इस ओर अविलंब ध्यान देना चाहिए। आजादी का 75वां अमृत महोत्सव तो हम मना रहे हैं, लेकिन आजादी के इतने साल बीत जाने के बाद भी देश में जब शिक्षा की स्थिति पर नजर डालें तो कई ऐसे गांव मिल जाएंगे, जहां सरकारी स्कूल लकड़ी के बने झोपड़ी में चलते हैं।
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