सनातन धर्म में विश्वेश्वर ज्योतिर्लिंग की विशेष महिमा है। यह विश्वनाथ, काशी विश्वनाथ आदि नामों से प्रसिद्ध है। भारतवर्ष के काशी में यह दिव्य ज्योतिर्लिंग प्रतिष्ठित है। शिवपुराण के कोटिरूद्र संहिता के अंतर्गत विश्वेश्वर ज्योतिर्लिंग एवं काशी क्षेत्र की महिमा का वर्णन स्वयं भगवान शिव द्वारा किया गया है। पुराणानुसार सूतजी कहते हैं कि मुनिवरों! में काशी के विश्वेश्वर नामक ज्योतिर्लिंग की महिमा बताऊंगा, जो महापातकों का भी नाश करने वाला है। इस भूतल पर जो कोई भी वस्तु दृष्चिगोचर होती है, वह सच्चिदानन्दस्वरूप, निर्विकार एवं सनातन ब्रह्मस्वरूप है। अपने कैवल्य (अद्वैतद्ध भाव में ही रमने वाले उन अद्वितीय परमात्मा में कभी एक से दो हो जाने की इच्छा जाग्रत हुई, फिर वे ही परमात्मा सगुण रूप में प्रकट हो ‘शिव’ कहलाए। वे शिव ही पुरूष और स्त्री दो रूपों में प्रकट हो गए। उनमें जो पुरूष थाए उसका ‘शिव’ नाम हुआ और जो स्त्री हुई उसे ‘शक्ति’ कहते हैं। उन चिदानन्दस्वरूप शिव और शक्ति ने स्वयं अदृष्ट रहकर स्वभाव से ही दो चेतनों (प्रकृति और पुरूष) की सृष्टि की। उन दोनों माता-पिताओं को उस समय सामने न देखकर वे दोनों प्रकृति और पुरूष महान संशय में पड़ गए। उस समय निर्गुण परमात्मा से आकाशवाणी प्रकट हुई कि तुम दोनों को तपस्या करनी चाहिए, फिर तुमसे परम उत्तम सृष्टि का विस्तार होगा।
वे प्रकृति और पुरूष बोले कि प्रभो! शिव! तपस्या के लिए तो कोई स्थान है ही नहीं, फिर हम दोनों इस समय कहां स्थित होकर आपकी आज्ञा के अनुरूप तप करें। तब निर्गुण शिव ने तेज के सारभूत ‘पांच कोस’ लंबे-चौड़े शुभ एवं सुंदर नगर का निर्माण किया, जो उनका अपना ही स्वरूप था। वह सभी आवश्यक उपकरणों से युक्त था। उस नगर का निर्माण करके उन्होंने उसे उन दोनों के लिए भेजा। वह नगर आकाश में पुरूष के समीप आकर स्थित हो गया। तब पुरूष-श्रीहरि ने उस नगर में स्थित हो सृष्टि की कामना से शिव का ध्यान करते हुए बहुत वर्षों तक जप किया। उस समय परिश्रम के कारण उनके शरीर से श्वेत जल की अनेक धाराएं प्रकट हुईं, जिनसे सारा शून्य आकाश व्याप्त हो गया। वहां दूसरा कुछ भी दिखाई नहीं देता था। उसे देखकर भगवान विष्णु मन-ही-मन बोल उठे कि यह कैसी अद्भुत वस्तु दिखाई देती है। उस समय इस आश्चर्य को देखकर उन्होंने अपनी सिर हिलाया, जिससे उन प्रभु के सामने ही उनके एक कान से मणि गिर पड़ी। जहां वह मणि गिरी, वह स्थान मणिकर्णिका नामक महान तीर्थ हो गया। जब पूर्वोक्त जलराशि में वह सारी पंचक्रोशी डूबने और बहने लगी, तब निर्गुण शिव ने शीघ्र ही उसे अपने त्रिशूल के द्वारा धारण कर लिया, फिर विष्णु अपनी पत्नी प्रकृति के साथ वहीं सोये। तब उनकी नाभि से एक कमल प्रकट हुआ और उस कमल से ब्रह्मा उत्पन्न हुए। उनकी उत्पत्ति में भी शंकर का आदेश ही काऱण था। तदनन्तर उन्होंने शिव की आज्ञा पाकर अद्भुत सृष्टि आरंभ की। ब्रह्माजी ने ब्रह्माण्ड में चौदह भुवन बनाए। ब्रह्माण्ड का विस्तार महर्षियों ने पचास करोड़ योजन का बताया हैए फिर भगवान शिव ने यह सोचा कि ब्रह्माण्ड के भीतर कर्मपाश से बंधे हुए प्राणी मुझे कैसे प्राप्त कर सकेंगे। यह सोचकर उन्होंने मुक्तिदामिनी पंचक्रोशी इस जगत में छोड़ दिया। यह पंचक्रोशी काशी लोक में कल्याण-दायिनीए कर्मबंधन का नाश करनेवाली, ज्ञानदात्री तथा मोक्ष को प्रकाशित करने वाली मानी गई है। यहां स्वयं परमात्मा ने ‘अविमुक्त’ लिंग की स्थापना की है। अतः यह शिव को परम प्रिय हैए यहां शिव कभी इस क्षेत्र का त्याग नहीं करते हैं।
भगवान शिव के त्रिशूल पर धारण है ‘काशी’
भगवान शिव ने काशीपुरी को स्वयं अपने त्रिशूल से उतारकर मर्त्यलोक के जगत में छोड़ दिया है। ब्रह्माजी का एक दिन (एक कल्पद्ध पूरा होने पर जब सारे जगत का प्रलय हो जाता है, तब भी निश्चय ही इस काशीपुरी का नाश नहीं होता। उस समय भगवान शिव इसे त्रिशूल पर धारण कर लेते हैं और जब ब्रह्मा द्वारा पुनः नई सृष्टि की जाती है, तब इसे फिर वे इस भूतल पर स्थापित कर देते हैं। कर्मों का कर्षण करने से ही इस पुरी को ‘काशी’ कहते हैं। काशी में अविमुक्तेश्वरलिंग सदा विराजमान रहता है। वह महापातकी मनुष्यों को भी मोक्ष प्रदान करने वाला है। अन्य मोक्षदायक धामों में सारूप्य आदि मुक्ति प्राप्त होती है। केवल इस काशी में ही जीवों को सायुज्य नामक सर्वेन्तम मुक्ति शुलभ होती है। जिनकी कहीं भी गति नहीं है, उनके लिए वाराणसी पुरी ही गति है। महापुण्यमयी पंचक्रोशी करोड़ों हत्याओं का विनाश करने वाली है। यह शंकर की प्रिय नगरी काशी सदा भोग और मोक्ष प्रदान करने वाली है। कैलास के पति, जो भीतर से सन्तवगुणी और बाहर से तपोगुणी कहे गए हैं, कालाग्नि रूद्र के नाम से विख्यात है। वे निर्गुण होते हुए भी सगुण रूप में प्रकट हुए शिव हैं। पुराणानुसार कालाग्नि रूद्र ने निर्गुण शिव से प्रार्थना की तथा उनको लोकहित की कामना से सदा काशी में निवास करने की प्रार्थना की, जिससे शिव जीवों का उद्धार करें। अविमुक्त ने भी शंकर से बारम्बार प्रार्थना कर उनसे कहा कि काशीपुरी को आप अपनी राजधानी स्वीकार करें। मैं अचिन्त्य सुख की प्राप्ति के लिए, यहां सदा आपका ध्यान लगाए स्थिरभाव से बैठा रहूंगा। आप शिव ही मुक्ति देने वाले तथा सम्पूर्ण कामनाओं को पूर्ण करने वाले हैं, ‘दूसरा कोई नहीं’। अतः आप परोपकार के लिए उमा सहित सदा विराजमान रहें। जब विश्वनाथ ने निर्गुण शिव भगवान से इस प्रकार प्रार्थना की, तब सर्वेश्वर शिव समस्त लोकों का उपकार करने के लिए काशी पुरी में विराजमान हो गए। पुराणानुसार परमेश्वर शिव ने देवी पार्वती से काशी की महिमा बताते हुए कहा कि इस परम उत्तम अविमुक्त तीर्थ में जो विशेष बात हैए वह तीर्थ सभी वर्ण और समस्त आश्रमों के लोग चाहे कोई भी हो, यदि इस पुरी में प्राण त्याग करें तो मुक्ति हो ही जाती है। समस्त क्षेत्रों एवं तीर्थों का सार यह ‘अविमुक्त क्षेत्र’ तीर्थ (काशी) है।
ज्योतिर्विद लोकेन्द्र चतुर्वेदी
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