ज्ञान अमृत

शनि देव एवं शनि स्तोत्र की महिमा

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Glory of Shani Dev: पद्म पुराण के अनुसार शनि देव को समस्त जगत के उत्पात का कारण माना गया है। ज्योतिष शास्त्रानुसार शनि देव अंश रूप में आकाश में शनि ग्रह के रूप में भ्रमणशील हैं तथा पृथ्वी पर होने वाली समस्त घटनाओं के लिये उत्तरदायी होता है। मनुष्यों को प्रारब्ध अनुसार शुभ-अशुभ फल प्रदान करने वाला होता है। मनुष्यों के पूर्वजन्मों में किये गये शुभ-अशुभ कर्मफल को प्रदान करना शनिदेव द्वारा सम्भव होता है। शास्त्रानुसार भगवान विष्णु ने जीवों को कर्म फल प्रदान करने के लिये अंश रूप से ग्रहों का अवतार लिया है। शनिदेव भगवान सूर्य देव के पुत्र हैं तथा यमुना और यमराज के भ्राता है। शनिदेव न्यायकर्ता व दण्डाधिकारी हैं। भगवान शंकर शनिदेव के गुरु हैं तथा शनिदेव भगवान कृष्ण के परमभक्त हैं।

भगवान शंकर और नारद जी के संवाद में वर्णन

शनिदेव की महिमा के सम्बन्ध में पद्मपुराण में भगवान शंकर एवं नारद जी के संवाद के रूप में कथा का वर्णन है। एक बार नारद जी भगवान शंकर से प्रश्न करते हैं कि शनैश्चर की दी हुई पीड़ा कैसे दूर होती है? यह बताइये। भगवान शंकर जी बोले- देवर्षे। सुनो, ये शनैश्चर देवताओं में प्रसिद्ध कालरूपी महान ग्रह हैं। इनके मस्तक पर जटा है, शरीर में बहुत से रोएँ हैं तथा ये दानवों को भय पहुंचाने वाले हैं। पूर्वकाल की बात है, रघुवंश में दशरथ नाम के बहुत प्रसिद्ध राजा हुए हैं। वे चक्रवर्ती सम्राट, महान वीर तथा सातों द्वीपों के स्वामी थे।

उन दिनों ज्योतिषियों ने यह जानकर कि शनैश्चर कृत्तिका के अंत में जा पहुंचे हैं, राजा को सूचित किया- महाराज! इस समय शनि रोहिणी का भेदन करके आगे बढ़ेगे, यह अत्यन्त उग्र शाकटभेद नामक योग है, जो देवताओं तथा असुरों के लिए भी भयंकर है। इससे बारह वर्षों तक पृथ्वी में अत्यन्त भयानक दुर्भिक्ष (अकाल) फैलेगा। यह सुनकर राजा ने मन्त्रियों के साथ विचार किया और वसिष्ठ आदि ब्राह्मणों से पूछा कि इस संकट को रोकने का कौन सा उपाय है। वसिष्ठ जी बोले- राजन! यह रोहिणी प्रजापति ब्रह्माजी का नक्षत्र है, इसका भेद हो जाने पर प्रजा कैसे रह सकती है। ब्रह्मा और इन्द्र आदि के लिये भी यह योग असाध्य है।

भगवान शंकर कहते हैं- नारद! इस बात पर विचार करके राजा दशरथ ने मन में महान साहस का संग्रह किया और दिव्यास्त्रों सहित दिव्य धनुष लेकर बड़े वेग से वह नक्षत्र-मण्डल में गये। वहां पहुंच कर राजा ने धनुष को कान तक खींचा और उस पर संहारास्त्र का संधान किया। वह अस्त्र देवता और असुरों के लिये भयंकर था। उसे देखकर शनिदेव कुछ भयभीत होकर हँसते हुए बोले- राजेन्द्र! दशरथ तुम्हारा महान पुरुषार्थ शत्रु को भय पहुंचाने वाला है। मेरी दृष्टि में आकर देवता, असुर, मनुष्य, सिद्ध, विद्याधर और नाग- सब भस्म हो जाते हैं, किन्तु तुम बच गये।

Glory of Shani Dev and Shani Yo Stotra

अतः महाराज! तुम्हारे तेज और पौरुष से मैं सन्तुष्ट हूं। वर मांगो, तुम अपने मन से जो कुछ चाहोगे, उसे अवश्य दूंगा। दशरथ ने कहा- शनिदेव! जब तक नदियां और समुद्र हैं, जब तक सूर्य और चन्द्र‌मा सहित पृथ्वी कायम है, तब तक आप रोहिणी नक्षत्र का भेदन करके आगे न बढ़ें। साथ ही कभी बारह वषर्ष तक दुर्भिक्ष (अकाल) न करें। शनिदेव बोले- एवमस्तु (ऐसा ही होगा)। भगवान शंकर जी कहते हैं- ये दोनों वर पाकर राजा बड़े प्रसन्न हुए, उनके शरीर में रोमाच हो आया। वे रथ के ऊपर धनुष डाल हाथ जोड़ शनि देव की स्तुति करने लगे।

दशरथ जी स्तुति करते हैं-

नमः कृष्णाय नीलाय शितिकण्ठनिभाय च। नमः कालाग्निरूपाय कृतान्ताय च वै नमः॥
नमो निर्मांस देहाय दीर्घश्मश्रुजटाय च। नमो विशालनेत्राय शुष्कोदर भयाकृते॥
नमः पुष्कलगात्राय स्थूलरोम्णे च वै पुनः। नमो दीर्घाय शुष्काय कालंदष्ट्र नमोऽस्तुते॥
नमस्ते कोटराक्षाय दुर्निरीक्ष्याय वै नमः। नमो घोराय रौद्राय भीषणाय करलिने॥
नमस्ते सर्वभक्षाय बलिमुख नमोऽस्तु ते। सूर्यपुत्र नमस्तेऽस्तु भास्करे ऽभयदाय च॥
अधोदृष्टे नमस्तेऽस्तु संवर्तक नमोऽस्तु ते। नमो मन्दगते तुभ्यं निस्त्रिंशाय नमोस्तु ते॥
तपसा दग्धदेहाय नित्यं योगरताय च। नमो नित्यं क्षुधार्ताय अतृप्ताय च वै नमः॥
ज्ञानचक्षुर्नमस्तेऽस्तु कश्यपात्मजसूनवे। तुष्टो ददासि वै राज्यं रुष्टो हरसि तत्क्षणात्॥
देवासुरमनुष्याक्ष सिद्धविद्याधरोरगाः। त्वया विलोकिताः सर्वे नाशं यान्ति समूलतः॥
प्रसादं कुरु मे देव वरार्होऽहमुपागतः॥

जिसका अर्थ है

जिनके शरीर का वर्ष कृष्ण, नील तथा भगवान शंकर के समान है, उन शनिदेन को नमस्कार है। जो जगत के लिये कालाग्नि एवं कृतान्तरूप हैं, उन शनैश्चर को बारम्बार नमस्कार है। जिनका शरीर कङ्काल है तथा जिनकी दाढी-मूंछ और जटा बढ़ी हुई है, उन शनिदेव को प्रणाम है। जिनके बड़े-बड़े नेत्र, पीठ में सटा हुआ पेट और भयानक आकार है, उन शनैश्वर देव को नमस्कार है।

जिनके शरीर का ढांचा फैला हुआ है, जिनके रोएँ बहुत मोटे हैं, जो लम्बे-चौड़े किन्तु सूखे शरीर शरीर वाले हैं तथा जिनकी दाढ़े कालरूप हैं, उन शनिदेव को बारम्बार प्रणाम है। शने! आपके नेत्र खोखले के समान गहरे हैं, आपकी ओर देखना कठिन है, आप घोर, रौद्र भीषण और विकराल हैं। आपको नमस्कार है। अलिमुख! आप सब कुछ भक्षण करने वाले हैं, आपको नमस्कार है। सूर्यनन्दन! भास्करपुत्र! अभय देनेवाले देवता! आपको प्रणाम है। नीचे की ओर दृष्टि रखनेवाले शनिदेव! आपको नमस्कार है। संवर्तक! आपको प्रणाम है।

मन्द गति से चलते नाले शनैश्चर! आपका प्रतीक तलवार के समान है, आपको पुनः पुनः प्रणाम है। आपने तपस्या से अपने देह को दग्ध कर दिया है, आप सदा योगाभ्यास में तत्पर, भूख से आतुर और अतृ‌प्त रहते हैं। आपको सदा-सर्वदा नमस्कार है। ज्ञाननेत्र! आपको प्रणाम है। कश्यपनन्दन सूर्य के पुत्र शनिदेव! आपको नमस्कार है। आप संतुष्ट होने पर राज्य दे देते हैं और रुष्ट होने पर उसे तत्क्षण हर लेते हैं। देवता, असुर, मनुष्य, सिद्ध, विद्याधर और नाग- ये सब आपकी दृष्टि पड़ने पर समूल नष्ट हो जाते हैं। देव! मुझ पर प्रसन्न होइये। मैं वर पाने के योग्य हूं और आपकी शरण में आया हूं।

शनिदेव ने बताया पीड़ा से मुक्त होने का मार्ग

महादेवजी कहते हैं- नारद! राजा दशरथ के इस प्रकार स्तुति करने पर ग्रहों के राजा महाबलवान सूर्यपुत्र शनिदेव बोले- उत्तम व्रत के पालक राजेन्द्र! तुम्हारी इस स्तुति से मैं संतुष्ट हूं। रघुनन्दन! तुम इच्छानुसार वर मांगो, मैं तुम्हें अवश्य दूंगा। दशरथ बोले- सूर्यनन्दन! आज से आप देवता, असुर, मनुष्य, पशु, पक्षी तथा नाग- किसी भी प्राणी को पीड़ा न दें।

शनिदेव ने कहा- राजन्! देवता, असुर, मनुष्य, सिद्ध, विद्याधर तथा राक्षस- इनमें से किसी के भी जन्मराशि से मृत्युस्थान, जन्मस्थान राशि अथवा चतुर्थ स्थान में मैं रहूं तो उसे मृत्यु का कष्ट दे सकता हूं। किन्तु जो श्रद्धा से युक्त, पवित्र और एकाग्रचित्त हो मेरी लोहे की सुन्दर प्रतिमा का शमीपत्रों से पूजन करके तिल मिश्रित उड़द-भात, लोहा, काली गौ या काला वृषभ ब्राह्मण को दान करता है तथा विशेषतः मेरे दिन शनिवार को इस स्तोत्र से मेरी पूजा करता है, पूजन के पश्चात् भी हाथ जोड़कर मेरे स्तोत्र (स्तुति) का जप करता है, उसे मैं कभी भी पीड़ा नहीं दूंगा। गोचर में, जन्मलग्न में, महादशाओं तथा अन्तर्दशाओं में ग्रह-पीड़ा का निवारण करके मैं सदा उसकी रक्षा करूंगा। इसी विधान से सारा संसार पीड़ा से मुक्त हो सकता है।

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रघुनन्दन! इस प्रकार मैंने युक्ति से तुम्हें वरदान दिया है। मदादेव शंकर जी कहते हैं- नारद! वे तीनों वरदान पाकर उस समय राजा दशरथ ने अपने को कृतार्थ माना। वे शनैश्चर को नमस्कार करके उनकी आज्ञा ले अपने स्थान को चले गए। जो शनिवार को प्रातः उठकर इस स्त्रोत का पाठ करता है तथा जो पाठ को सुनता है, वह मनुष्य पाप से मुक्त हो स्वर्गलोक में प्रतिष्ठित होता है।

लोकेन्द्र चतुर्वेदी