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फील गुड फैक्टर

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भारतवर्ष में हो रहे आम चुनावों को लेकर जहां एक ओर पूरे देश में नरेंद्र मोदी के तीसरे कार्यकाल को लेकर सकारात्मक चर्चा हो रही थी, वहीं विश्वपटल पर भी दुनिया के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश में मोदी सरकार के रुप में एक सशक्त पूर्ण बहुमत की सरकार बनने को लेकर उत्सुकता थी। मोदी सरकार ने अपने 10 साल के कार्यकाल में देश को एक आत्मनिर्भर और सशक्त भारत के निर्माण में पूरी ईमानदारी से देश की सेवा में रात-दिन एक कर दिया।

इन 10 वर्षों में मोदी सरकार ने सबका साथ-सबका विकास के नारे को मूल मंत्र मानते हुए देश के कोने-कोने में बिना किसी भेदभाव के प्रत्येक योजनाओं को घर-घर पहुंचाया। आजाद भारत में यह पहली बार था, जब बिना किसी भेदभाव के, बिना किसी भ्रष्टाचार के केंद्र व प्रदेश सरकार की योजनाएं समाज के अंतिम व्यक्ति तक सीधी पहुंची और आम जनमानस को इन योजनाओं का सीधा लाभ हुआ। यह बात अलग है कि सबका साथ-सबका विकास और सबका विश्वास अब भरोसे लायक नहीं है।

एक ओर जहां भारतीय जनता पार्टी की 2014 व 2019 में प्रचंड बहुमत के साथ सरकार बनीं, वहीं इसी कार्यकाल में भारतीय जनता पार्टी ने देश के तमाम राज्यों में भी सरकार बनाने के साथ-साथ अपना विस्तार किया। मोदी सरकार ने देश के तमाम जटिल मुद्दों को बड़ी ही सरलता व सफलता से हल कर दिया। धारा 370 हटाना एवं अयोध्या में श्रीराम जन्मभूमि विवाद का हल होना मोदी सरकार की ही दृढ़ इच्छा शक्ति का ही परिणाम था। इसी प्रकार उत्तर प्रदेश में योगी आदित्यनाथ के नेतृत्व में एक सशक्त सरकार सफलतापूर्वक अपने दूसरे कार्यकाल में है। योगी आदित्यनाथ एक सफल मुख्यमंत्री के रुप में पूरे देश में जाने जाते हैं।

योगी सरकार में उत्तर प्रदेश में एक ओर जहां कानून व्यवस्था पूरी तरह से सुदृढ़ हुई, वहीं प्रदेश में चौमुखी विकास भी हुआ। जिसका उदाहरण आज देश के दूसरे राज्य भी देने में संकोच नहीं करते, फिर ऐसा क्या हो गया कि उत्तर प्रदेश जैसे बड़े राज्य जहां डबल इंजन की सरकार है, वहां डिब्बे कैसे पटरी से उतर गए। आखिर ऐसा क्या हुआ, जिससे इन चुनावों में उत्तर प्रदेश में भारतीय जनता पार्टी को इतना बड़ा झटका लगा। उत्तर प्रदेश के साथ-साथ अन्य हिन्दी पट्टी राज्यों में भी कमोवेश यही हाल रहा। यह बहुत ही विश्लेषण का विषय है कि इन हिन्दी पट्टी राज्यों में पार्टी की ऐसी दुर्गति क्यों हुई। अगर संक्षेप में कहा जाए तो निश्चय ही इसके पीछे भारतीय जनता पार्टी का अति-आत्मविश्वास और अपने मातृ संगठन से विचार-विमर्श का सर्वथा आभाव रहा। पिछले दिनों इसी संदर्भ में भारतीय जनता पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष का एक बयान आया था।

केंद्रीय नेतृत्व को यह भ्रम हो गया था कि इस लहर में जो भी आएगा, उसकी नौका पार हो जाएगी। यह 2004 में अटल विहार बाजपेयी के नेतृत्व में लड़े गए चुनाव ‘फीलगुड फैक्टर’ की तरह था, जिसमें केंद्रीय नेतृत्व ने बिना जमीनी हकीकत जाने चुनाव लड़ा था और मुंह की खानी पड़ी थी। सबसे बड़ी पराजय तो अयोध्या की मानी जाएगी क्योंकि यह वही स्थान है, जिसने भाजपा को फर्श से अर्श तक पहुंचाया लेकिन भारतीय जनता पार्टी के नेताओं के बयान कि भाजपा का भगवा से कोई लेना-देना नहीं है, इस तरह के बयानों ने हिन्दू जनमानस को बहुत आहत किया है। इस संगठन की यह विशेषता रही है कि प्रत्याशियों के चयन में मातृ संगठन से विचार विमर्श किया जाता रहा है।

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हाल के वर्षों में भाजपा शीर्ष नेतृत्व संगठन एवं सरकार से संबंधित सारे फैसले दिल्ली दरबार से ही बैठकर करने लगी। वर्तमान चुनावी नतीजे इसी का परिणाम है। इस चुनाव में प्रत्याशियों के चयन के साथ-साथ कार्यकर्ताओं की उदासीनता व स्वयंसेवकों का पूरी तरह से इस चुनावों में न लगना, इस हार का बड़ा कारण है। अब यह देखना दिलचस्प होगा कि भारतीय जनता पार्टी का शीर्ष नेतृत्व इससे क्या सबक लेता है। हाल के दिनों में भारतीय जनता पार्टी के कार्यकर्ताओं की भी उपेक्षा बढ़ी है। सिर्फ चुनावी मौसम में उनको काम पर लगाया जाता है। प्रदेश व केन्द्र में सरकार होने के बावजूद भारतीय जनता पार्टी का कार्यकर्ता अपने आपको क्यों उपेक्षित महसूस कर रहा है, इस बात की समीक्षा की जानी चाहिए। भारतीय जनता पार्टी भले ही केन्द्र में सरकार बना रही है और यह एनडीए की जीत भी है, लेकिन उसके स्वयं के सांसदों की संख्या 240 ही है अर्थात् यह सरकार एनडीए गठबंधन की सरकार ही मानी जाएगी। ऐसे में मोदी सरकार को कोई भी महत्वपूर्ण निर्णय लेने से पहले एनडीए में सहमति बनानी होगी।  

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