ताइवान के बारे में जब भी कोई देश, खासकर अमेरिका किसी तरह का फैसला करता है तो चीन की ओर से प्रतिक्रिया व्यक्त की जाती है। इस बार भी ऐसा हुआ है। अमेरिका ने अपने रक्षा बजट में ताइवान के सुरक्षा मसलों पर कुछ धन रखा और इधर चीन ने ताइवान स्ट्रेट (जलडमरूमध्य) की ओर अपने पोत रवाना कर दिए। हालांकि चीन इसे सैन्य अभ्यास कह रहा है किंतु ताइवान इसे अपने लिए धमकी और खतरे के तौर पर देखता है।
यहां चीन और ताइवान के बीच रिश्ते को समझना आवश्यक है। ऐसा इसलिए कि यह रिश्ता बड़ा पेचीदा है। चीन सदैव ताइवान को अपने देश का हिस्सा ही मानता है, जो उससे अलग हो गया है। ताइवान के लोग ऐसा नहीं मानते। यहीं जोड़ देना जरूरी है कि करीब 12 साल पहले चीन और ताइवान ने एक व्यापार समझौता भी किया था, जिसमें तनाव के बीच अभी पिछले साल सितंबर में तल्खियां बढ़ गई थीं। ताइवान से आने वाले अनानास के बाद चीन ने उसके शरीफा को भी यह कह कर लेने से इनकार कर दिया था कि उसमें एक तरह के कीड़े हैं, जो चीन की फसलों में भी लग सकते हैं। ताइवान इसका कोई वैज्ञानिक कारण नहीं देखता। बहरहाल, वन चाइना पॉलिसी, उसको ताइवान की ओर से नहीं मानने के बीच दोनों के बीच व्यापार समझौता एक तथ्य है। इसके बाद चलें इतिहास की ओर, जिससे दोनों के बीच संबंधों को समझने में आसानी होगी।
ताइवान 1642 से 1661 तक नीदरलैंड्स की कॉलोनी था। फिर चीन के चिंग राजवंश का 1683 से 1895 तक शासन रहा। फिर 1895 में जापान से हारने के साथ ताइवान, जापान के कब्जे में आ गया। दूसरे विश्व युद्ध में जापान की हार और एक निर्णायक मोड़ के तहत अमरीका और ब्रिटेन ने ताइवान को चीन के बड़े राजनेता और मिलिट्री कमांडर चैंग काई शेक को सौंपने का फैसला किया। चैंग काई शेक ताइवान के करीबी माने जाते रहे। चीन के बड़े हिस्से पर काबिज चैंग काई शेक कम्युनिस्ट सेना से हार के बाद चीन से भागकर ताइवान चले आए। कई वर्षों तक वे यहां प्रभाव बनाये रहे। बाद में कई साल तक विपरीत रहने के बाद चीन और ताइवान 1980 के दशक में करीब आने लगे। जब चीन ने 'वन कंट्री टू सिस्टम' के तहत ताइवान को अपना हिस्सा और स्वायत्त क्षेत्र बनाने का प्रस्ताव रखा, जिसे ताइवान ने नहीं माना। करीब 22 साल पहले वर्ष 2000 में ताइवान के राष्ट्रपति चेन श्वाय बियान ने खुलेआम ताइवान को स्वतंत्र राष्ट्र के रूप में दिखाना-बताना शुरू कर दिया।
इसके पहले 1979 में अमेरिका ने ताइवान को चीन का हिस्सा माना था। तब राष्ट्रपति जिमी कार्टर ने ताइवान के साथ राजनयिक संबंध खत्म कर चीन से रिश्ते मजबूत किए। आगे चलकर ट्रम्प के समय से तो असल में अमेरिका, ताइवान का सबसे अहम दोस्त है। चीन की नाराजगी की ताजा मसला यही है कि अमेरिकी कांग्रेस ने 'ताइवान रिलेशन एक्ट' पास कर ताइवान को सैन्य हथियार आपूर्ति का फैसला किया है। जरूरत पड़ने पर उसने ताइवान पर किसी भी तरह के हमले की स्थिति को गंभीरता से लेने का फैसला किया है।
इसके पहले अमेरिका और चीन के बीच 1996 में भी बहुत तनाव देखा गया था। तब ताइवान के राष्ट्रपति चुनाव को प्रभावित करने के लिए चीन ने मिसाइल परीक्षण किया था। तब अमेरिकी राष्ट्रपति बिल क्लिंटन ने वियतनाम युद्ध के बाद एशिया में सबसे बड़े अमेरिकी सैन्य प्रदर्शन को मंजूरी दी थी। उस समय अमेरिका ने ताइवान की ओर बड़े युद्धक जहाज भेज कर चीन को संदेश दिया कि ताइवान की सुरक्षा भी उसके लिए अहम है। अब अमेरिका ने ताइवान के लिए तय किया है कि उसके लिए वह कोई समझौता नहीं करेगा। तो दूसरे विश्व के दौरान 1949 में हुई चीन के गृह युद्ध में कम्युनिस्टों के हाथों चैंग काई शेक के नेतृत्व वाले राष्ट्रवादियों की हार के बाद स्थिति में बड़ा बदलाव हुआ।
ताजा हालात में चीन ने ताइवान स्ट्रेट (जलडमरूमध्य) क्षेत्र में अपने पोत यह कहकर तैनात किए हैं कि यह उसका सैन्य अभ्यास है। इसके पहले अमेरिकी स्पीकर नैंसी पेलोसी ने ताइवान की यात्रा की थी। उस समय अमेरिका ने अपने दो युद्ध पोत को ताइवान स्ट्रेट से रवाना किया था। तब चीन ने कहा था कि वह दोनों पोतों पर नजर रखे हुए है। अब बारी अमेरिका के नजर रखने की है। ताइवान के रक्षा मंत्रालय ने माना है कि उसने ताइवान के आसपास 23 चीनी विमान और आठ चीनी जहाज की मौजूदगी देखी है।
ताइवान-चीन तनाव को सभी देश अपने ढंग से देख रहे हैं। फिर भी यह सच्चाई है कि चीन के अन्य हिस्सों में राष्ट्रवादी कॉमिंगतांग पार्टी की हार के बावजूद ताइवान पर कम्युनिस्टों के बजाय कॉमिंगतांग का ही प्रभाव रहा है। उसके नेता ने भागकर यहां सरकार का नेतृत्व किया। चीन फिर भी प्रश्न करता है कि दूसरे विश्व युद्ध के बाद ताइवान किसको दिया गया। ताइवान के बहुमत की इच्छा के अनुरूप लगता है कि ताइवान के शासक अपने को अलग देश के तौर पर ही रखेंगे। अमेरिका ने तो अपना स्टैंड स्पष्ट कर दिया है, बाकियों को करना है। भारत अभी तक ताइवान के प्रति अनौपचारिक ही रहा है। अब 'वन चाइना पॉलिसी' के प्रति हम कठोर हुए हैं। हमारा पूरब से व्यापार पहले से बेहतर हुआ है। ऐसे में ताइवान स्ट्रेट में चीन के आधिपत्य से दिक्कतें आ सकती हैं। ऐसे में वह दक्षिण चीन सागर और दक्षिणी प्रशांत महासागर में दबदबा रखना चाहेगा। फिर भारत को भी बहुत सोच समझकर ही फैसले लेने होंगे।
डॉ. प्रभात ओझा