बेगूसरायः लोक आस्था का बिहारी पर्व छठ ग्लोबल हो चुका है, हर ओर छठ की धूम मच रही है। गांव की गलियों में गूंजते छठ के गीत और परदेसियों की बढ़ती संख्या ने लोगों को पर्व के समरसता भाव का ऐहसास कराना शुरू कर दिया है। छठ मतलब एक ऐसा पर्व जिसमें सभी सामाजिक भेदभाव समाप्त हो जाते हैं, हर घर से एक समान खुशबू और गीतों की आवाज आनी शुरू हो जाती है।
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ठेकुआ के बिना अधूरा है छठ महापर्व
ऐसे में छठ जब ग्लोबल हुआ तो पूजा के प्रसाद भी बदलते चले गए। अब अमेरिका में लोग हल्दी का पत्ता कहां से लाएंगे, ऑस्ट्रेलिया में सुथनी कैसे मिलेगा, ब्रिटेन में लोग गन्ना कहां से लाएंगे, बोस्टन में बांस का सूप मिलना तो मुश्किल ही है। जिसके कारण विदेशों में रह रहे भारतीय वहां उपलब्ध फल और धातु से बने सूप में सूर्यदेव को अर्घ्य देने की तैयारी कर चुके हैं लेकिन बिहार का कोई सुदूरवर्ती गांव हो या वॉशिंगटन का जैसा आधुनिक विदेशी शहर, तमाम जगहों पर एक प्रसाद आज भी कॉमन है, जिसके बिना छठ पूजा संपन्न नहीं मानी जाती है, वह प्रसाद है गेहूं के आटे से तैयार किया जाने वाला ठेकुआ।
लेकिन, कई ऐसी बातें हैं, चीजें हैं जिनका छठ पर्व के साथ चोली दामन का साथ बन गया है। बिहार का सुप्रसिद्ध व्यंजन छठ के बहाने दुनिया में छा गया है। छठ की पूजा संपन्न हो गई और प्रसाद में यदि आपने ठेकुआ नहीं दिया तो लोग जरूर सवाल उठाएंगे की ठेकुआ के बगैर प्रसाद अधूरा है।
भगवान सूर्य को भी ठेकुआ बहुत प्यारा
ऐसी मान्यता है कि भगवान सूर्य को भी ठेकुआ बहुत प्यारा है, इसीलिए इस दौरान बना ठेकुआ सबसे स्वादिष्ट बनाया जाता है। शुद्ध घी का बना ठेकुआ स्वाद अनोखा हो जाता है। लोकगीत के मधुर धुनों पर झूमती महिलाएं जब ठेकुआ बनाती हैं तो इसमें ना सिर्फ चीनी और गुड़, बल्कि महिलाओं के सुमधुर गीत की मिठास भी घुल जाती है। ठेकुआ बनाने के लिए गेहूं सुखाने जब तमाम छतों पर महिलाएं जुटी तो लोकगीतों के लय ने अमीर-गरीब और ऊंच-नीच के तमाम भेदभाव मिट जाते हैं।
ठेकुआ के डिजाइन भले ही अलग-अलग होने लगे हैं, लेकिन इसका स्वाद आज भी वही है जो दशकों पूर्व था। अंतर बस इतना है कि पहले यह ठेकुआ प्रातः कालीन पूजा के बाद गांव-गाव में रिश्तेदारों तक पहुंचाए जाते थे और अब देश के कोने-कोने ही नहीं, विदेश तक भेजे जा रहे हैं। जिनके भी परिजन विदेश में रह रहे हैं, वहां कुरियर से यह भेजा जा रहा है। जबकि विदेश में छठ करने वाले परिवार कम ही सही लेकिन ठेकुआ जरूर चढ़ाते हैं। बिहार से बाहर किसी अन्य राज्य या विदेश में जाना हो अथवा भेजना हो ठेकुआ ज्यों-का-त्यों रहेगा, जबकि दूसरे प्रसाद खराब हो सकते हैं।
उल्लेखनीय है कि बिहार में स्वादिष्ट व्यंजन निर्माण की समृद्ध परंपरा है। हमारे बुजुर्गों का मानना था कि बरसात आने से पहले घर में पर्याप्त चीजें बनाकर रख कर ली जानी चाहिए, जिससे बरसात के फीके मौसम में भी खाने का स्वाद बना रहे। पहले इतने होटल, परिवहन के साधन और खाने को लेकर अन्य तमाम विकल्प नहीं मौजूद होते थे। यदि कोई कहीं जा रहा है, तो ठेकुआ लेकर निकल गया, उस समय के सप्ताह भर की यात्रा हो अथवा आज के जमाने में कहा जाने वाला टूर, ठेकुआ भूख मिटाने का सबसे बेहतर साधन होता था और आज भी गांव वासियों के लिए सर्वोत्तम है। कहीं जाना होता मां ठेकुआ की पोटली बांध कर दे देते थे।
हर तरफ छठ की धूम
रास्ते भर खाने के लिए नहीं सोचना पड़ता, उसी तरह जब लौटना होता तो उधर से भी ठेकुआ ही दिया जाता। ठेकुआ खाने के लिए कहीं रुकना नहीं पड़ता है, खाते-खाते भी दो-चार किलोमीटर तय कर लेते थे। इसे कहीं रख दीजिए खराब नहीं होगा, स्वाद और अंदाज वही होगा। इसलिए इसकी बादशाहत आज भी कायम है। फिलहाल हर ओर छठ की धूम मची हुई है और घर-घर में ठेकुआ पकवान बनाने की तैयारी हो गई है। गेहूं सूख गया, चीनी और सुखा मेवा के साथ ही घी एवं रिफाइन भी आज आ गया है, चार दिवसीय महापर्व के उमंग में चप्पा-चप्पा डूब गया है।
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