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जीवित्पुत्रिका या जिउतिया व्रत करने से दूर होते हैं संतान के सभी कष्ट, जानें व्रत की पौराणिक कथा

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बेगूसरायः सनातन हिंदू धर्म में कई प्रकार के व्रत-त्योहार सालों भर मनाए जाने का विधान है। जिसमें पति, पुत्र, धन-धान्य, सौभाग्य और सुख समृद्धि की कामना की जाती है। इन्हीं त्योहारों में से एक है आश्विन मास की कृष्ण पक्ष की अष्टमी को मनाया जाने वाला जीवित्पुत्रिका व्रत (जिउतिया)। सप्तमी तिथि को नहाए खाए के साथ इस व्रत का शुरुआत होता है और अष्टमी तिथि को महिलाएं निर्जला व्रत करती है। लेकिन इस बार महिलाओं को इस व्रत में कठिन परीक्षा देनी होगी, दो दिनों तक उन्हें निराहार रहना पड़ेगा।

जीवित्पुत्रिका व्रत का मुहूर्त
सप्तमी में नहाय खाय के बाद प्रदोष काल में जिस दिन अष्टमी का प्रवेश होगा उसी दिन जीवित्पुत्रिका व्रत प्रारम्भ होगा। 28 सितम्बर मंगलवार को दोपहर 3 बजकर 15 मिनट दिन तक सप्तमी है। इसके बाद प्रदोष काल में अष्टमी प्रवेश कर जाएगा और 29 सितम्बर को शाम 5 बजकर 4 मिनट तक अष्टमी रहेगा। इसके बाद नवमी प्रवेश होगा और व्रत का पारण होगा। दोपहर तक सप्तमी रहने केे कारण मंगलवार को सुबह से ही व्रत करना पड़ेगा। जीवित्पुत्रिका व्रत माताएं अपनी संतान की लंबी आयु, स्वास्थ्य, सुख-समृद्धि, संतान प्राप्ति की कामना के साथ किया जाता है। धार्मिक मान्यता के अनुसार इस व्रत से संतान के सभी कष्ट दूर होते हैं।

जीवित्पुत्रिका व्रत की पौराणिक कथा
पौराणिक कथाओं के अनुसार इस परंपरा के पीछे जीवित्पुत्रिका व्रत की कथा में वर्णित चील और सियार का होना माना जाता है। कहा जाता है कि महाभारत काल में भगवान श्रीकृष्ण ने अपने पुण्य कर्मों को अर्जित करके उत्तरा के गर्भ में पल रहे शिशु को जीवनदान दिया था, इसलिए यह व्रत संतान की रक्षा की कामना के लिए किया जाता है। मान्यता है कि इस व्रत के फलस्वरुप भगवान श्रीकृष्ण संतान की रक्षा करते हैं। जीवित्पुत्रिका व्रत शुरू करने से पहले मंगलवार को महिलाएं सुबह पांच बजे ओठगन करेगी, जिसमें गेहूं के आटे की रोटी खाने की बजाए मरुआ के आटे की रोटियां खाती हैं। नोनी का साग खाने की भी परंपरा है। जिसमें नोनी के साग में कैल्शियम और आयरन भरपूर मात्रा में होता है और व्रती के शरीर को पोषक तत्वों की कमी नहीं होती है। सनातन धर्म में पूजा-पाठ में मांसाहार का सेवन वर्जित माना गया है। लेकिन इस व्रत की शुरुआत बिहार में कई जगहों पर मछली खाने का चलन है। इसके बाद शुभता का प्रतीक पान खाकर महिलाएं निर्जला व्रत शुरू कर देती है। निर्णय सिंधु के अनुसार इसे सबसे कठिन व्रतों में से एक माना जाता है।

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सप्तमी तिथि के दिन नहाए खाए, अष्टमी के दिन जितिया व्रत और नवमी के दिन व्रत का पारण किया जाता है। नहाए खाए वाले दिन व्रती सूर्यास्त के बाद कुछ नहीं खाती हैं और घर में प्याज-लहसुन नहीं बनता है। कथाओं के अनुसार एक विशाल पाकड़ के पेड़ पर एक चील रहती थी। उसी पेड़ के नीचे एक सियारिन भी रहती थी। दोनों पक्की सहेलियां थी, दोनों ने कुछ महिलाओं को देखकर जितिया व्रत करने का संकल्प लिया और भगवान जीमूत वाहन की पूजा और व्रत करने का प्रण ले लिया। लेकिन जिस दिन दोनों को व्रत रखना था, उसी दिन शहर के एक बड़े व्यापारी की मृत्यु हो गई और उसके दाह संस्कार में सियारिन को भूख लगने लगी थी। मुर्दा देखकर वह खुद को रोक नहीं सकी और उसका व्रत टूट गया। लेकिन चील ने संयम रखा और नियम एवं श्रद्धा से अगले दिन व्रत का पारण किया। अगले जन्म में दोनों सहेलियों ने भास्कर नामक ब्राह्मण परिवार में पुत्री के रूप में जन्म लिया। चील बड़ी बहन बनी और सियारन छोटी बहन के रूप में जन्मीं। चील का नाम शीलवती रखा गया, शीलवती की शादी बुद्धिसेन के साथ हुई, जबकि सियारिन का नाम कपुरावती रखा गया और उसकी शादी उस नगर के राजा मलायकेतु से हुई। भगवान जीमूतवाहन के आशीर्वाद से शीलवती के सात बेटे हुए। लेकिन कपुरावती के सभी बच्चे जन्म लेते ही मर जाते थे। कुछ समय बाद शीलवती के सातों पुत्र बड़े हो गए और सभी राजा के दरबार में काम करने लगे। कपुरावती के मन में ईर्ष्या की भावना आ गयी और राजा से कहकर सभी बेटों के सर काट दिए तथा सात नए बर्तन मंगवाकर उसमें रख दिया और लाल कपड़े से ढककर शीलवती के पास भिजवा दिया। यह देख भगवान जीमूतवाहन ने मिट्टी से सातों भाइयों के सिर बनाए और सभी के सिरों को उसके धड़ से जोड़कर उन पर अमृत छिड़क दिया, इससे उनमें जान आ गई, सातों युवक जिंदा होकर घर लौट आए। तभी से जीमूतवाहन का व्रत करने का विधान चल रहा है।

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